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५०/ अस्तेय दर्शन
हम उसका आदर करते हैं। परन्तु उस दान की हम उचित व्यवस्था चाहते हैं। उस पर
आपको भी विचार करना है। ___कल्पना कीजिए, आपके नगर में एक संस्था है और उसके उद्देश्य तथा कार्य से
आप सन्तुष्ट हैं, मगर अर्थाभाव के कारण वह अशक्त है। उसके पास सुचारू रूप से कार्य करने को पर्याप्त द्रव्य नहीं है। दूसरी संस्था कहीं बाहर है, किन्तु वह यथेष्ट कार्य नहीं कर रही है। पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के उसके रिकार्ड्स धन इकट्ठा करने के ही रहे हैं, काम करने के नहीं।
यह दोनों संस्थाएँ आपके सामने हैं । आप जानते हैं कि अपने नगर की संस्था को दान देने से नामवरी नहीं होगी, या होगी भी तो कम होगी, और बाहर की संस्था को दान देने से अधिक नाम होगा, अधिक प्रतिष्ठा मिलेगी। इस प्रलोभन में पड़ कर आप ठोस और सन्तोषजनक कार्य करने वाली स्थानीय संस्था को तो दान नहीं देते और दिखावा करने वाली बाहर की संस्था को, प्रतिष्ठा पाने के लोभ से दान देते हैं । गाँव की संस्था भूखी मर रही है, धनाभाव के कारण उसके महत्त्वपूर्ण काम रूके हुए हैं, और दूसरी तरफ बाहर यश-लोलुपता से प्रेरित होकर हजारों का दान दे रहे हैं । मैं समझता हूँ कि यह दान-सम्बन्धी अव्यवस्था है, अज्ञानता है, अविवेक है, और है-स्पष्टतः योग्य संस्था के अधिकार का अपहरण ।
जो दान सीधा जनता के जीवन में प्रवेश करता है, जिससे जनता का उपकार और मंगल होता है, उससे विमुख रहना, जन-जीवन के लिए उपयोगी कार्य करने वाली संस्था को दान न देना; और जिस संस्था के पास पर्याप्त धन है और जिसके
अधिकारी उस धन पर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, वहाँ दान देना, एक प्रकार का अपहरण पमहीं तो क्या है? जो अधिकारी है उसे न देना, और उसके बदले जो अधिकारी नहीं है उसे दे देना; इसे चोरी के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ?
हमारे यहाँ पहले आचार्य को वन्दन किया जाता है और फिर दूसरे साधुओं को। इस क्रम को भंग करके यदि कोई आचार्य को छोड़ कर पहले दूसरे साधुओं को वन्दन करता है तो वह आचार्य की चोरी है।
यह जीवन की विभिन्न परिभाषाएँ हैं । जब हम खुले दिमाग से जीवन के आदर्शों पर विचार करते हैं तो मालूम होता है कि अपने कर्तव्य का पालन न करना ही चोरी है।
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