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५६ / अस्तेय दर्शन ___ तो कहने को तो यह चोरी नहीं है और समाज भी इसे चोरी समझने को तैयार नहीं है, किन्तु दर्शन की दृष्टि से यह भी चोरी है। समाज से धन इकट्ठा किया और डाले रक्खा, सारी जिन्दगी समाप्त हो गई-न अपने लिए और न दूसरों के लिए ही उसका उपयोग किया तो, यह भी एक प्रकार की चोरी ही है।
जो व्यक्ति सम्पत्ति पा करके भी उसे प्राणों से लगाए रहता है और आतरौद्र ध्यान में शरीर गलाता रहता है ; अपनी आध्यात्मिक चेतना को बराबर नष्ट करता रहता है, बूढ़े माँ बाप की सेवा के भाव भी नहीं रखता है, पत्नी तथा सन्तति की उन्नति की बात भी नहीं सोचता है और अपनी जिन्दगी में ठीक ढंग की तैयारी भी नहीं करता है, इन सब प्रयोजनों के लिए धन का उपयोग न करके उसे दबाए बैठा रहता है, तो मैं नहीं समझ पाता कि वह व्यक्ति चोरी नहीं करता तो और क्या करता है।
यह तर्क का प्रश्न है और विचार की बात है। मैं पहले अपने ऊपर ही घटाता हूँ, मान लीजिए, एक व्यक्ति साधु बन गया है, किन्तु साधु का जो कर्तव्य है और उत्तरदायित्व है, उसे पूर्ण नहीं कर रहा है तो वह चोर है या साहूकार है ?
यहाँ तो आप चटपट कह देंगे कि वह चोर है। यहाँ आपकी तर्क बुद्धि काम कर जाती है और मैं समझता हूँ कि ठीक काम कर रही है। क्योंकि उसने संसार छोड़ा है, साधु बनने की प्रतिज्ञा की है, जीवन क्षेत्र में खड़ा हो गया है और आपसे यश-प्रतिष्ठा प्राप्त करता है, आहार पानी लेता है और जीवन की अनिवार्य सामग्री लेता है : फिर भी अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता है और साधुपद की मर्यादा का अनुसरण नहीं करता है, तो वह भगवान का चोर है। तस्कर की परिभाषाः
इसी प्रकार जिसने गुरू से बाना लिया है और गुरू के आदेशों का पालन करने की प्रतिज्ञा ली है, वह यदि गुरू के बताए हुए मार्ग पर नहीं चल रहा है, तो वह गुरू का चोर है।
जो अपने आपको, समाज में साधु के रूप में प्रकट करता है, साधु की हैसियत से समाज की सहायता और सहयोग प्राप्त करता है, फिर भी अपने साधुजीवन के कर्तव्य का पालन नहीं करता है तो वह निश्चय ही समाज का चोर है।
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