________________
४६ / अस्तेय दर्शन
आचार्य हरिभद्र के शब्दों में--धर्म धनंबुद्धि : धर्म ही सच्चा धन है। आनन्द को यह नया दृष्टिकोण भगवान् से मिला । संसार का भौतिक धन तो एक दिन मिलता है और मिलकर बिछुड़ भी जाता है, किन्तु जब तक धर्म में धन की बुद्धि पैदा नहीं होती, जीवन में मंगल नहीं होता। जो मनुष्य धर्म को धन समझ सकेगा, वह धर्म की प्रतिष्ठा में ही अपनी प्रतिष्ठा समझेगा। वह अपने अच्छे संस्कारों को ही जीवन की अच्छी से अच्छी कमाई समझेगा। वास्तव में वह कमाई इतनी ऊँची कमाई है कि यहाँ भी मालामाल और आगे भी मालामाल। उसके आगे सोने के सिंहासन भी फीके पड़ जाते हैं। जब मनुष्य में ऐसे विचार जाग जाते हैं तो वह ऊँचाई की ओर बढ़ जाता है। __ मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन का विश्लेषण करे। देखे कि मैं कहाँ भूल कर रहा हूँ ? जीवन की अटपटी पगडंडी पर चलता हुआ अपने कर्तव्य को भली-भाँति पूरा कर रहा हूँ या नहीं ? अगर वह अपना कर्त्तव्य ठीक ढंग से अदा कर रहा है तो वहाँ धर्म है। और यदि उसके किसी कार्य में धर्म-बुद्धि नहीं है, फिर भले ही धर्म के नाम पर कितना ही बड़ा क्रियाकाण्ड क्यों न करे वह एक प्रकार की चोरी ही है, धर्म नहीं।
यहाँ अचौर्यव्रत का प्रसंग चल रहा है, धार्मिक जीवन का चिन्तन चल रहा है; किन्तु जैनधर्म ने चोरी के सम्बन्ध में कहाँ तक कितनी भूमिका बाँधी है और मोर्चा बनाया है, जब तक हम इस तथ्य को सही रूप में नहीं समझ लेते हैं, तब तक धर्म करते हुए भी गलतियाँ करते रहेंगे। क्योंकि जब तक दृष्टिकोण को साफ नहीं किया जाता, जीवन में भूलें चलती ही रहती हैं । अस्तेय की परिभाषा :
एक आदमी को किसी वस्तु की अपेक्षा है, आवश्यकता है । वह उसका योग्य अधिकारी भी है, पात्र भी है। अगर उसे वह वस्तु मिल जाती है तो उसका उपयोग करके वह अपने जीवन को बना सकता है। दूसरा व्यक्ति है, जिसे उस वस्तु की अभी आवश्यकता नहीं है और वह दूसरे ढंग से भी अपना काम चला सकता है। वह उसका पात्र भी नहीं है। आपके पास वह चीज है। किन्तु आपने पहले व्यक्ति को वह नहीं दी
और दूसरे को दे दी। यों तो आपने अपनी वस्तु अर्पण की है और लोक-प्रसिद्धि के अनुसार दान दाता बन गए हैं ; किन्तु जहाँ जरूरत थी वहाँ नहीं दी और जहाँ जरूरत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org