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४४ / अस्तेय दर्शन
प्रश्न है कि हम संसार में आनन्द और सुखशान्ति कहाँ से पाएँ। चींटी से लेकर स्वर्ग के देवी-देवता तक उस शान्ति और सुख की तलाश में हैं और दुःख से अपने जीवन को बचाना चाहते हैं । पर वह आनन्द है कहाँ ?
भगवान् महावीर की वाणी के अनुसार तो वह आनन्द, न धन में है, न परिवार में है और न दुनिया के किसी अन्य सुखोपभोग में है। संसार के वैभव जितने बढ़ते जाते हैं. क्या आनन्द भी उतना ही बढ़ता जाता है ? ऐसा तो दिखाई नहीं देता। कभी-कभी जब वैभव बढ़ता जाता है तो आनन्द कम होता जाता है और जीवन का रस सूखता जाता है। विचारने वाले लोग कभी-कभी महसूस करते हैं कि यह क्या हो गया। धन आज है, कल नहीं :
एक भाई हमारे भक्तों में से है। वह पहले गरीब था, अब मालदार है। एक दिन उसने हमारे सामने अपना अन्तर खोल कर रक्खा । कहने लगा, जब मैं गरीब था ते देने की बुद्धि होती थी। कोई स्वधर्मी बन्धु आता तो उसे अच्छे से अच्छा भोजन खिलाने की और प्रेम से जिमाने की इच्छा होती थी। घर में किसी चीज की जरूरत पड़ती तो टालने की आदत नहीं थी। समझता था किं-पैसा आज है, और कल नहीं है। अतः जो कुछ मिला है, उसका उपयोग क्यों न कर लूँ ? किन्तु ज्यों-ज्यों पैसा बढ़ता गया, वह बुद्धि घटती गई। अब वैसे भाव नहीं आते हैं। दान लेने को कोई आता है तो मन मार कर देता हूँ। वह उत्साह निकल गया है।
यह बात उसने स्पष्ट रूप में कही तो मैंने कहा-तुम भाग्यशाली हो कि तुम्हें अपने मन का पता तो है। प्रायः लोगों को अपने मन का पता ही नहीं होता कि वह बना है या बिगड़ा है।
इस प्रकार धन, वैभव प्रतिष्ठा की वृद्धि होने पर कदाचित् कुछ औपचारिक सुख और शान्ति भी मिल जाय, किन्तु जो सत्कर्म का उत्साह मनुष्य में बना रहना चाहिए, वह नहीं रहता है।
अतएव भगवान् ने कहा है कि असली आनन्द और मंगल तो धर्म में है। अगर उस पैसे के साथ धर्म आ रहा है, धर्म के संस्कार आ रहे हैं तो आनन्द बना रहेगा। प्रतिष्ठा और इज्जत मिल रही है तो तदनुसार कर्त्तव्य के प्रति प्रेरणा भी बनी रहनी
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