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विवेक परम धर्म
मनुष्य का जीवन किस प्रकार ऊँचा उठ सकता है ? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर संसार के सभी धर्मों ने विचार किया है। सभी ने अपने-अपने ढंग से, जीवन को उच्च स्तर पर पहुँचाने के उपायों का भी निर्देश किया है । परन्तु मानव जीवन के उच्चतम विकास की विचारणा जैनधर्म ने जिस ऊँचाई तक की है, वह अन्यत्र बहुत कम दिखलाई पड़ती है। जीवन के विकास का जो चरम आदर्श जैनधर्म ने प्रस्तुत किया है, उसकी समानता अन्यत्र कहाँ है। हमारे कुछ साथियों ने देवी-देवताओं की आराधना और गुलामी में जीवन की उच्चता की अभिव्यक्ति देखी, देवी-देवताओं को उच्चतम मानवीय विकास का चरम प्रतीक माना, पर, जैनधर्म ने कहा कि मनुष्य का जीवन उस स्तर तक ऊँचा उठ सकता है कि देवता भी उसके चरणों में नमस्कार करके अपने आपको धन्य और कृतार्थ समझें । और इस स्थिति पर पहुँचकर में विकास का मार्ग अवरूद्ध नहीं हो जाता। मनुष्य उससे भी आगे चलता है और साक्षात परमात्मतत्व की उपलब्धि करके ही कृतकृत्य होता है ।
___ पर जान पड़ता है, आज जैनधर्म के अनुयायी भी उस ऊँचाई को नहीं समझ पा रहे है। उनका हृदय इतना संकीर्ण और मस्तिष्क इतना क्षुद्र हो गया है कि वह विराट और विशाल उच्चता, आज उनमें समा नहीं रही है।
दूसरे लोग भूल करें तो करें । उनकी भूल समझ में आ जाती है, पर जैनधर्म का अनुयायी जब इस विषय में भूल करता है, तो विस्मयं भी होता है और खेद भी होता है। हम समझते हैं कि उन्होंने भगवान महावीर की वह वाणी, भुला दी है, जिसमें कहा गया है
धम्मो मंगलमुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्सं धम्मे सया मणो ।
- दशवैकालिक, १, १.
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