________________
२८ / अस्तेय दर्शन
समाप्ति इतने में ही नहीं हो जाती। तुम्हें जनता के सम्पर्क में जहाँ कहीं जाना हो, धर्म के संस्कार लेकर ही जाना चाहिए। मकान पर और दूकान पर भी धर्म की वासना अन्तःकरण में बनी रहनी चाहिए । देश और विदेश में सर्वत्र धर्म की भावना जागृत ही रहनी चाहिए। नौकरी करते हो तो दफ्तर में या कार्यालय में भी धर्म को साथ लेकर जाना चाहिए। आशय यह है कि जहाँ जीवन है वहाँ धर्म है, धर्म से अलग जीवन नहीं है। इस प्रकार जीवन जब धर्ममय बन जाता है, धर्म के रंग में रंग जाता है, तभी आत्मा का उत्थान होता है।
शास्त्र ने बतलाया है कि साधु की सामायिक जीवन-पर्यन्त के लिए होती है। साधु जब शास्त्रस्वाध्याय करता है, तप करता है, तब भी सामायिक में रहता है और जब गोचरी करता है और भोजन करता है, तब भी सामायिक में रहता है। जब जागता है, तब भी सामायिक में है और जब सोता है, तब भी सामायिक में है। ऐसा नहीं है कि निद्रा के समय सामायिक में अन्तराय पड़ जाता है, फलतः साधुपन जागते समय ही रहता हो और सोते समय न रहता हो।
शास्त्र के इस तथ्य पर कभी आपने विचार किया है ? खाते समय और सोते समय किस प्रकार सामायिक रह सकती है, इस प्रश्न पर आप विचार करेंगे तो धर्म का मर्म आपकी समझ में आ जायगा। सौरभमय जीवन :
बात यह है कि साध के जीवन में एक प्रकार की महक आ जाती है। जब महक आ जाती है तो वह रात में भी रहने वाली है और दिन में भी रहने वाली है। रात्रि में कमल बन्द हो जाता है, परन्तु महक उसमें बनी ही रहती है। जब फूल खिल जाता है
और महक छोड़ना शुरू कर देता है तो दिन हो या रात, जब तक वह जीवित है, निरन्तर महकता ही रहेगा।
इसी प्रकार हमारे जीवन-पुष्प में जब चारित्र की सुगन्ध पैदा हो जाती है, तो वह दिन और रात निरन्तर महकती ही रहनी चाहिए।
तो साध जीवन के सम्बन्ध में हम समझते हैं कि सारा ही जीवन सामायिकमय है। किन्तु गृहस्थ की सामायिक कितनी देर की है ? जब यह प्रश्न आता है तो हम चट
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org