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३४/ अस्तेय दर्शन
ऐसी परिस्थिति में अहिंसा और सत्य की जड़ें हिल जाती हैं । अहिंसा की कसौटी किसी धर्मस्थान में बैठने पर नहीं होती वह तो जीवन-व्यवहार में होती है। धर्म-क्षेत्र में नहीं, कर्म-क्षेत्र में होती है। इसी प्रकार किसी ने सत्य भाषण करने का नियम ले लिया है, तो दो घड़ी के लिए धर्मस्थान में बैठने पर उसके सत्य की परीक्षा नहीं होगी। सत्य की परीक्षा तो वहीं होगी जहाँ आप जीवन के लिए संघर्ष करेंगे अगर आप वहाँ अस्तेय व्रत का पालन करते हैं, न्याय-नीति से ही जीवन-व्यवहार चलाते हैं, दूसरों का हक नहीं छीनते हैं, प्रामाणिकता पूर्वक जीवन की आवश्यक सामग्री प्राप्त करते हैं, तो समझा जायगा कि आपका अहिंसा और सत्य व्रत अक्षुण्ण है। इस प्रकार अचौर्य व्रत, सत्य और अहिंसा की कसौटी है, निचोड़ है, फल है । गृहस्थ जीवन में भिक्षा निषेध :
जब तक मनुष्य घर गृहस्थी में रहता है, अपने जीवन-निर्वाह के लिए कुछ न कुछ व्यापार करना उसके लिए आवश्यक है। उसे साधु की तरह झोली लेकर मिक्षा नहीं माँगनी है। उसे तो पुरुषार्थ से कमाना है। एक आचार्य ने कहा है कि जो गृहस्थ सशक्त है, जिसमें काम करने की शक्ति है, वह यदि अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं करता और केवल भिक्षावृत्ति के ऊपर ही जीवन-निर्वाह करता है, तो वह देश और समाज की चोरी कर रहा है। वह राष्ट्र का गुनहगार है। आचार्य हरिभद्र ने उसकी भिक्षा को 'पौरूषनी' भिक्षा बतलाया है। ऐसी भिक्षा उसके पुरुषार्थ को टुकड़े-टुकड़े कर देने वाली है।
जिस देश में ऐसी भिक्षा की प्रणाली होगी, उस देश के नागरिकों के व्यक्तित्व की ऊँचाई नष्ट हो जायगी। न भिक्षा लेने वाला ही ऊँचा चढ़ेगा, न देने वाला ही ऊँचा चढ़ सकेगा। वह अकर्मण्यता पैदा करेगी। इस प्रकार भिक्षा मांगने वाला, भिक्षा के द्वारा अगर हजारों रुपये भी पैदा कर लेता है, तो भी वह प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता।
साधुओं के लिए भी कहा है कि वास्तव में जो साधु-वृत्ति का पालन नहीं करता और भिक्षा के द्वारा जीवन चला रहा है, उसकी भिक्षा भी आत्म-पुरुषार्थ रूप संयम को नष्ट करने वाली है।
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