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अस्तेय दर्शन/३५
तात्पर्य यह है कि समर्थ और सशक्त आदमी को गृहस्थी में रहते हुए भिक्षा माँगने का अधिकार नहीं हैं। उसे निर्वाह के लिए पुरुषार्थ करने का अधिकार है।
दो आदमी मिलते हैं। उनमें से एक कहता है, मैं नौकरी करता हूँ या मजदूरी करता हूँ और अपनी रोटी कमाता हूँ। दूसरा कहता है कि मैं तो कुछ भी नहीं करता। सब कुछ करने में पाप है। अतः मैं मिक्षा लाकर खा लेता हूँ। आरम्भ-समारम्भ के झगड़े में नहीं पड़ता।
इस प्रकार एक मनुष्य जीवन निर्वाह के लिए पुरुषार्थ करता है और दूसरा संसार त्यागी न होता हुआ भी भिक्षावृत्ति करता है तो आप इनके विषय में क्या कहते हैं ? किसे पापी और किसे पुण्यात्मा कहते हैं ?
जैन समाज भी 'प्रासुक' और 'निरवद्य' के रहस्य को ठीक तरह ध्यान में न रखकर भ्रम में पड़ गया है। किसी समय यही शब्द अत्यन्त महान् थे, और उनमें पवित्रता का भाव था, पर आज उनका उपहास-सा किया जा रहा है। इन शब्दों के गलत प्रलोभन में पड़कर लोग दलदल में फंस रहे हैं । जो व्यक्ति अकर्मण्यता के वशीभूत होकर, प्रमाद का शिकार होकर, पुरुषार्थ का त्याग कर देता है और सीधी निरवद्य रोटी खाता है, वह निरवद्य की महान् कला को भूल गया है। ऐसा करने वाला प्रमादी, धार्मिक नहीं, अधार्मिक है।
इस प्रकार पुरुषार्थ करके रोटी कमाना गृहस्थ का धर्म है, मगर रोटी-रोटी के ढंग से कमानी है। उस ढंग का जब विचार किया तो जीवन में व्यापार आ गया। तो व्यापार करना गुनाह नहीं है और पुरुषार्थ करना अधर्म नहीं है, किन्तु अपने उत्तरदायित्व को न्याययुक्त पूरा न करना अधर्म है।
अस्तेयव्रत बतलाता है कि मनुष्य किस प्रकार का पुरुषार्थ करे और किस ढंग से अपनी आजीविका चलाए ? मनुष्य का जीवन धर्मस्थान में और दुकान में एक रूप होना चाहिए। व्यापार की गरिमा :
मैंने कहा था कि दूकान हमारी संस्कृति का केन्द्र है। दूकान पर सैकड़ों आदमी आते हैं और चहल-पहल रहती है। वह एक गद्दी है। उसके द्वारा दूकानदार जनता के चित्त में प्रेम का संचार कर सकता है और धर्म तथा नीति की छाप अंकित कर सकता
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