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अस्तेय दर्शन / ३७
मुझे एक जैन गृहस्थ की बात याद है। शहर में एक भद्र ग्रामीण आया। उसने सोने की कंठी बनवाई थी। सुनार की दुकान से कंठी लेकर दूसरा सौदा खरीदने के लिए वह उस जैन गृहस्थ की दूकान पर गया। उसने सौदा ले लिया और कंठी वहीं भूल गया। अपना शहर का काम पूरा करके वह गाँव की ओर चल पड़ा। आधे रास्ते में पहुँचा तो ध्यान आया की कंठी नहीं है ! बहुत सोचने विचारने पर भी ख्याल न आया कि वह कंठी कहाँ भूल आया है? वह कई जगह बैठा था और उसे याद नहीं था कि कंठी किसकी दूकान पर रह गई।
वह घबराया हुआ शहर की ओर लौटा। अपनी पैनी दृष्टि से दूकानों पर देखता चला जा रहा है। पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती। बिना पते के पूछे भी तो किससे पूछे? चलता-चलता वह उसी जैन गृहस्थ की दूकान के सामने होकर निकला। उसने सोचा दुम् दूकान पर भी मैं बैठा था। वह बड़ी दूकान थी। कंठी के विषय में पूछने का साहस उसे नहीं हो सका। __जैन गृहस्थ ने उस कंठी को संभाल कर रख लिया था। और सोचा था कि वह लौट कर आएगा तो दे दूंगा, और यदि नहीं आया तो कोतवाली में जमा कर दूंगा।
दूकानदार ने उसे मुँह लटकाए. दूकान की ओर देखते हुये देखा तो कहा, भाई, जरा इधर आना ! क्या तुम्हारी कोई चीज गुम हो गई है ?
आगन्तुक-हां, गुम तो हो गई है। दूकानदार-कहाँ ? आगन्तुक-यह तो कुछ याद नहीं आता। कई जगह बैठा था दूकानदार-क्या चीज थी? और कहाँ से ली थी? आगन्तुक ने चीज का नाम बतला दिया और सुनार का नाम भी बतला दिया।
दूकानदार ने कंठी उसे लौटा दी और कहा-जरा सावधानी रखनी चाहिए, वर्ना कभी ठोकर खाओगे।
कंठी का मालिक, दूकानदार के पैरों पर गिर पड़ा । बोला-आप मनुष्य नहीं, देवता हैं।
कंठी वाला अपने गाँव पहुँचा। उसने गाँव में दुकानदार की प्रशंसा में कहा, "वह मनुष्य नहीं, देवता है। हाथ में पड़ी हुई चीज को उसने लौटा दिया। इसका प्रभाव यह हुआ कि सारा गाँव उसका ग्राहक हो गया ।
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