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४०/ अस्तेय दर्शन
थोड़ों में ही मिलेगी। एक कवि ने कहा है
साधवों न हि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने। वास्तव में इस देश में अब इतनी बाढ़ की जरूरत नहीं, बाढ़ का पानी देश को डुबाने वाला होता है। यहाँ तो कुए का जल चाहिए। प्रामाणिकता और सत्य के जल से लबालब भरे हुए थोड़े ही साधक हितकर होते हैं। इसी तरह न्यायपूर्वक धन कमाने वाले थोड़े ही मिलेंगे पर वे ही देश के सच्चे हितचिन्तक हैं। ऐसे मुट्ठी भर व्यक्ति भी देश के नैतिक धरातल को ऊँचा उठा सकते हैं । ऐसे व्यक्तियों का कमाया हुआ धन कुए के जल के समान होता है। जैसे कुए का जल पत्थरों में से छनछन कर, पवित्र और शीतल बनकर आता है और सैकड़ों वर्षों तक लोगों की प्यास बुझाता रहता है। उसी तरह न्यायोपात धन भी प्रामाणिकता और सत्य से छन कर आता है और वह देशवासियों को चिरकाल तक शान्ति देने वाला होता है। ऐसे धन ने ही एक दिन देश के व्यापार को समृद्ध बना दिया था। भारत की प्रामाणिकता की छाप नीतिपूर्ण कमाई के कारण ही विदेशों पर पड़ी थी। चन्द्रगुप्त के राज्यकाल में तो, इतिहास कहता है, घरों में ताले भी नहीं लगाये जाते थे। उस समय इस देश की नैतिकता इतनी बढ़ी-चढ़ी थी। भारत के व्यापारियों ने चीन, जावा, सुमात्रा आदि देशों में व्यापार किया, पर अपनी नैतिकता और प्रामाणिकता नहीं खोई । उन्होंने उन देशवासियों पर अपनी नैतिकता की वह छाप छोड़ी, जिसके चिन्ह आज भी यत्र-तत्र उन देशों के सांस्कृतिक जीवन में बिखरे पड़े हैं। इसीलिए भारत में, प्राचीन काल में, प्रत्येक परिवार में, यह सुवर्णसूत्र प्रचलित था-'अगर तू दूकानदारी करना चाहता है तो न्याय से ही धन की कमाई कर । वही तेरी जिन्दगी को हराभरा रख सकेगी।
परन्तु खेद है कि आज भारत ने अपनी नैतिकता को भुला दिया है। आज बेईमानी और चोरबाजारी इतनी बढ़ गई है कि सारे देश में इसने अनीति की आग लगा दी है। यह देश, आर्य देश नहीं, अनार्यों का सा देश बन गया है। चोर-बाजारी करने वालों ने सारे देश को कलंकित कर रक्खा है। इससे चोर-बाजारी करने वालों का नैतिक पतन होता है, सो तो होता ही है, समग्र देशवासियों का भी नैतिक बल क्षीण होता जा रहा है। . आज भारत की नैतिकता को टटोलेंगे तो मालूम पड़ेगा कि ९० फीसदी नैतिकता गायब हो गई है। यही कारण है कि आज धर्मस्थानों में भी लोगों की जेबें
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