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३० / अस्तेय दर्शन
चारित्राचारित्र हैं। परन्तु मैं कहता हूँ कि यह ठीक है कि कुछ चारित्र हैं और कुछ नहीं हैं । तो जो नहीं हैं उसकी बात नहीं करते ; पर हम यह जानना चाहते हैं कि जो चारित्र हैं, वह कहाँ का है ? किस चारित्र का भाग है ?
जो इस प्रकार नहीं समझते, उनसे मैं पूछता हूँ कि जो संवरद्वार हैं, उन्हें किस जगह रक्खा जाय ?
परिषह-विजय साधु के लिए ही कहे जाते हैं। यद्यपि हम ऐसा नहीं मानते, मगर हमारे साथी ऐसा मानते हैं । इसी प्रकार पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ भी साधु के लिए सुरक्षित रख ली गई हैं। उनमें भी गृहस्थ का प्रवेश नहीं है। और क्षमा आदि दस धर्म भी साधु के लिए ही हैं । यह सब साधु के लिए ही हैं तो इनके बाद में गिने जाने वाले पाँच चारित्र भी साधु के लिए ही होने चाहिए। इस प्रकार गृहस्थ के अहिंसा और सत्य आदि व्रत अगर संवर में स्थान नहीं पा सकते तो फिर क्या उनकी गणना आस्रव में की जायगी? यानी गृहस्थ का सब का सब धर्म, जो एक से एक उच्च दर्जे का है, उसे संवर में गिनें या आसव में ? यह तो कोई नहीं कह सकता कि साधु की अहिंसा और सत्य तो संवर के अन्तर्गत हैं और गृहस्थ की अहिंसा और सत्य आदि आस्रव में सम्मिलित हैं।
अच्छा, गृहस्थ का धर्म अगर आस्रव के अन्तर्गत नहीं है तो संवर के अन्तर्गत होना चाहिए और यदि संवर के अन्तर्गत है तो प्रश्न फिर वही आया कि किस संवर के अन्तर्गत है ? यही प्रश्न सबसे जटिल है। संवर में चारित्र पाँच ही हैं और यदि उनमें से गृहस्थ के व्रतों की किसी में भी गणना नहीं हो सकती तो गृहस्थ की भूमिका क्या मूलतः अलग है ? सिद्धान्त को देखने से ऐसा तो प्रतीत नहीं होता। अगर कोई आगमों का अध्ययन और मनन ही न करे तो आगमों का क्या दोष है? कोई भूला-भटका प्यासा, एक-एक बूंद के लिए तरसता हुआ गंगा के किनारे पहुँच जाय और खड़ा-खड़ा एक-दो घड़ी गुजार दे और कहे कि मैं गंगा के किनारे आकर भी प्यासा हूँ तो इसमें गंगा का क्या दोष है ? यह तो उसकी बुद्धि का ही दोष है कि वह किनारे पर खड़ा रह कर भी गंगा के पानी का उपयोग नहीं करता है।
तो यही बात शास्त्र के सम्बन्ध में भी है। हमारे कई साथी किनारे पर खड़े रहते हैं किन्तु शास्त्रों की गहराई में डुबकी नहीं लगाते । वे मिसरी को जेब में रखकर घूम
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