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सर्वोदय का मूल मन्त्र
आप जानते हैं कि जैनधर्म एक बहुत ऊँचा धर्म है, मगर आपको यह भी जानना चाहिए कि उसकी उच्चता आखिर किस कारण है ? जैनधर्म की उच्चता का कारण यह है कि उसकी निगाह खाली शास्त्रों पर ही नहीं है। कोई भी धर्म शास्त्रों में ऊँची-ऊँची बातें लिखी होने के कारण ही ऊँचा नहीं बन जाता। किसी धर्म को मानने वालों की लाखों करोड़ों की जनसंख्या हो तो भी वह ऊँचा नहीं कहा जा सकता। इसी तरह धर्मस्थानकों में बड़ी भीड़ लगने या चहल-पहल होने से भी धर्म-ऊँचा नहीं बनता है। जैनधर्म के प्रवर्तकों ने वास्तविक ऊँचाई के मूल को समझा और चिन्तन एवं विचार किया कि कोई भी धर्म, जो जनता के जीवन से बाहर ही बाहर रहता है, धर्म नहीं है। कम से कम वह उस धर्म की श्रेष्ठता का चिन्ह नहीं है। अतएव जैनधर्म मानता है कि जो धर्म जनता के जीवन में उतर जाता है और प्रतिदिन के व्यवहारों में घुलमिल जाता है और साधारण रहन-सहन में भी व्याप्त रहता है, वही श्रेष्ठ धर्म है। वहीं से उस धर्म को रोशनी मिलती है। वही ऊँचा है।
पुराने युग की ओर हम दृष्टिपात करते हैं और दूसरे धर्मों के सम्बन्ध में विचार करते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने जन-जीवन के साथ अपना मेल नहीं बिठाया । धर्म अलग रहा और जन-जीवन अलग रहा। इस प्रकार दोनों का मेल नहीं हुआ तो जनता का कल्याण भी नहीं हुआ। अतः जैनधर्म ने एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रेरणा दी। उसने जनता को और धर्म को अलग-अलग नहीं समझा। चाहे कोई साधु हो या गृहस्थ, उसकी प्रतिदिन की जिन्दगी धर्म से अलग नहीं है। धर्म मानव-जीवन से भिन्न नहीं हो सकता।
मनुष्य किसी भी सम्प्रदाय या पन्थ का अनुगमन करे, उसके जीवन में धर्म सतत ओतप्रोत रहना चाहिए। जैनधर्म ने जब इस दृष्टिकोण को सामने रक्खा तो उसने दूर-दूर तक की बातें कहीं। उसने हमें सोचने की प्रेरणा दी कि तुम्हें बोलना है, खाना पीना है, उठना-बैठना है या कोई भी काम करना है, तो यह देखो कि इसमें धर्म है या नहीं ? यहाँ तक कि वह चूल्हे और चौके तक भी धर्म को ले गया।
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