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अस्तेय दर्शन / २३
प्रामाणिकता से जनता को क्या लाभ है ? आखिर दूसरे व्यापारी बीच ही में अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं और तुम धर्म की पूँछ पकड़ कर बैठे हो ? जब तुमसे ले जाकर दूसरे लोग लाभ उठाते हैं तो तुम्हीं क्यों लाभ गंवा रहे हो ? यहाँ एक धर्मशाला की जरूरत है। तुम्हें ब्लेक का पैसा अपने पास न रखना हो तो एक धर्मशाला बनवा देना ।
इस प्रकार कह कर लोगों ने उसे बरगला लिया। वह भी प्रलोभन में पड़ गया और मेरे पास आया। बोला- मैंने चोरी का त्याग कर रक्खा है, पर दूसरे लोग उससे लाभ उठा रहे हैं। मुझसे ले जाकर वे 'ब्लैक मार्केटिंग' करते हैं। ऐसी स्थिति में यदि मैं स्वयं ब्लैक कर लूँ तो क्या हर्ज है ? उससे जो रुपया आयगा, उसे धर्मशाला बनवाने में लगा दूँगा ।
मैंने कहा- यह तो बड़ी भारी अज्ञानता का काम होगा। नीति कहती है
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा, तस्यानीहा गरीयसी । प्रज्ञालनाद्धि पंकस्य, दूरादस्पर्शनं वरम् ॥
पहले कीचड़ में पैर देना और जब सन जाय तो उसे पानी से धोना, कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? बुद्धिमान और विवेकशील व्यक्ति तो वही है जो पहले ही कीचड़ में पैर नहीं भरने देता । इसी प्रकार पहले धन उपार्जन करने और फिर उसे धर्म में लगाने की अपेक्षा तो धनोपार्जन से विरत हो जाना ही अधिक श्रेयस्कर है। फिर अनीति और अधर्म से धनोपार्जन करके दान देना तो और भी बड़ी अज्ञानता है। इस प्रकार का दान सच्चा दान नहीं है । वह को कषाय और अहंकार की आग को प्रज्ज्वलित करने वाला ईंधन है। उसमें धर्म के बदले प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि का उपार्जन करने की भावना प्रधान है। इसी अभिप्राय से यहाँ कहा गया है कि धर्म के लिए धन की इच्छा करने की अपेक्षा धन की इच्छा न करना ही अधिक श्रेष्ठ है ।
हाँ, तो मैंने उस व्यापारी से कहा- तुम जनता को लूटकर कदाचित धर्मशाला का महल खड़ा भी कर लोगे तो भी लोगों की निगाह में वह धर्मशाला अधर्मशाला ही रहेगी। ऐसा करके तुम जनता की सद्भावना को नहीं पा सकोगे। और न्याय नीति से चलकर, सम्भव है कि तुम एक झोंपड़ी भी न बनवा सको, किन्तु यदि तुम चोरी नहीं करते और ब्लैक नहीं करते तो यह तुम्हारा बड़े से बड़ा धर्म है। दूसरे लोग क्या कर रहे हैं, यह तो सरकार के ध्यान देने की बात है। तुम्हें तो अपने कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य का ही
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