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१०/ अस्तेय दर्शन
अन्दर में सुगन्ध नहीं है तो पवित्र से पवित्र वृत्तियाँ भी गंदगी का रूप धारण कर लेंगी-और इस रूप में समाज का वातावरण भी दूषित हो जायगा। ___ इस तरह चारित्र बल हमारे धार्मिक जीवन की आत्मा है। उसकी अनिवार्य आवश्यकता है। अगर वह है तो अहिंसा सफल है, सत्य भी फलदायी है और अस्तेय भी उपयोगी है। वह नहीं है तो सभी-कुछ निष्फल है, बल्कि कभी-कभी तो अनर्थकर
साधु हो अथवा श्रावक, आखिरकार साधक ही है। पुरातन संस्कारों से प्रेरित मनोवृत्ति के कारण या विचार-विभ्रम के कारण या सहज दुर्बलता के कारण कभी भूल हो जाना असंभव नहीं है। जीवन में गलतियाँ होती हैं और बड़ों-बड़ों से भी हो जाया करती हैं, परन्तु साधक की दृष्टि इतनी तीक्षण होनी चाहिए कि उससे वह छिपी न रह सके, दृष्टि इतनी सजग होनी चाहिए कि वह सहन न हो सके और साधक में इतना साहस होना चाहिए कि वह उसे स्वीकार कर सके और प्रकाशित कर सके।
ठोकर खा गये तो खा गये, अगर तत्काल सँभल-जाने की शक्ति है तो कोई चिन्ता की बात नहीं है। जो एक बार गिर कर फिर उठ सकता है, बल्कि पहले से भी अधिक ऊँचा उठ सकता है, उसका गिरना भी लाभदायक बन जाता है। किसी बालक को गेंद खेलते देखा है न? वह गेंद को नीचे पटकता है तो गेंद और भी ऊँची उठ जाती है। इसी प्रकार जो साधक अपनी गलतियों से ठोकर खा जाते हैं, किन्तु उससे शिक्षा ग्रहण करते हैं तो फिर अपनी सतह से भी ऊँचे उठ जाते हैं, वही सच्चे साधक हैं । वही जागरूक साधक है।
इसके विपरीत जो ठोकर खाकर चकनाचूर हो जाता है, मिट्टी के ढेले की तरह छितरा कर रह जाता है, कण-कण के रूप में बिखर जाता है, वह कभी ऊपर नहीं आ सकता।
इस भूमिका का अभिप्रायः यह है कि साधक जो भी व्रत या नियम ग्रहण करे, अन्तःशुद्धि के साथ ग्रहण करे। उस व्रत या नियम के अनुरूप ही उसका आन्तरिक जीवन हो। उसके भीतर चारित्रबल हो। तभी अहिंसा, सत्य अथवा अस्तेय आदि व्रत सार्थक होते हैं।
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