Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 22
________________ कृत्वेदं यो विधानेन, देवतातिथिपूजनम् । करोति मलिनारम्भी, तस्यैतदपि शोभनम् ॥ ३ ॥ भावशुद्धिनिमित्तत्वात्तथानुभव सिद्धितः । कथञ्चिद्दोषभावेऽपि तदन्यगुणभावतः भावार्थ - प्रारंभ सभारंभी - पापकारी व्यापार करने वाला गृहस्थ विधिपूर्वक स्नान कर देवता - महादेव - तीर्थङ्कर, मौर अतिथि साधु-साध्वियों की पूजा एव ं सत्कार करता है इसलिए गृहस्थ के लिये द्रव्यस्नान भी शोभायमान एवं लाभदायी है । यह अनुभव सिद्ध है कि वह द्रव्यस्नान भाव शुद्धि में निमित्तरूप बनता है एवं द्रव्यस्नान में थोड़ा दोष होने पर भी उससे ( सम्यक्त्वशुद्धि, आज्ञा की परिपालना, उपकारित्रों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन प्रमुख) दूसरे गुणों का लाभ होता है- ३-४) , ॥ ४ ॥ ३,४ श्लोक के कारण यदि किसी को यह शंका हो कि " द्रव्यस्नान यदि शोभन है तो गृहस्थों के लिये ही क्यों कहा ? साधु के लिये भी वह शोभन होना चाहिए ।" इस शंका का समाधान पंचम श्लोक में बताते हैं । धर्मसाधनसंस्थितिः । अधिकारिवशाच्छास्त्र व्याधिप्रतिक्रियातुल्या विज्ञेया गुणदोषयोः 112 11 भावार्थ - - रोगों की प्रतिक्रिया की जैसी व्यवस्था शास्त्रों में प्रतिपादित की गई है धर्म के साधनों की व्यवस्था उनके गुणदोषों के बारे में अधिकारी की अपेक्षा से वैसे ही जाननी चाहिये। इसका मतलब यह है कि :--जो द्रव्यस्नान गृहस्थ के लिये जिन-पूजा के कारण

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