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दीक्षा का जुलूस बना दें और इस तरह सारा मामला ही बदल दें। पूरी शक्ति, बुद्धि प्रादि से समझावें। यदि पुत्र-पुत्री न समझे तो अनिवार्य समझकर-बोझ समझकर उस जिम्मेदारी को निभायें पर मन में शादी का प्रानन्द न होकर दुःख हों।
इतनी महानतम उच्च जिम्मेदारी माता-पिता को समझनी चाहिये । बचपन से दिये गये धर्म के संस्कारों के कारण कदाचित् सन्तान संसार में रहेगी, तो भी जब-जब प्रारम्भ, सभारम्भ, पापव्यापार, अनीति, अन्याय, आदि का अवसर प्रायेगा, तो वह कतरायेगा, उसकी आत्मा में पाप के प्रति घृणा जगेगी, वह अपने कार्य के प्रति सजग रहेगा। कम से कम उसे पश्चात्ताप अवश्य होगा। अरे ! इतना तो उसे अवश्य लगेगा कि 'मैं यह अनुचित कर रहा हूँ' बस ! ये संस्कार ही उसका संसार सीमित करने में निमित्त बन सकेंगे। मोह के साथ युद्ध में यह कामना कमाल का काम करेगी। आखिर ज्ञानियों के उपदेश का सार भी यह ही है कि सारी आराधना, ज्ञान, ध्यान, संयम, तप आदि के कारण आत्मा में कितनी भवभीरुता आयी है और जीव अपनी स्थिति को समझ पाया है या नहीं। सकारण संसार में पड़ना पड़े, तो भी सजगता होना अत्यन्त जरूरी है । दृष्टि की सृष्टि जीवन को आलोकित भी कर सकती है, और तमसावृत भी कर सकती है ; हरा-भरा भी कर सकती है, उजाड़ भी सकती है । अतः माता-पिता एवं पुत्रपुत्रियां अपना दायित्व समझने में सफल बनें और अपनी प्रात्मा को मानन्दमय, आलोकमय बनाने की ओर अग्रसर बनें ।