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तदेव चिन्तनं न्यायात्तत्त्वतो मोहसङ्गतम् । साध्ववस्थान्तरे ज्ञेयं बोध्यादेः प्रार्थनादिवत् ॥६॥
भावार्थ--अत: उपर्युक्त चिंतन अर्थात् भावना, उपयुक्त संभवितअसंभवित दृष्टि से सचमुच मोहसंगत है । मात्र बोधिलाभ प्रादि की प्रार्थना की भांति वह राग युक्त अवस्था में ही संभव है ।--[६].
अपकारिणि सद्बुद्धिविशिष्टार्थप्रसाधनात् । प्रात्मभरित्वपिशुना तदपायानपेक्षिणी ॥७॥
भावार्थ-अपकार करने वाले का सद्भाव विशिष्टार्थ अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति में साधनभूत होने से, मात्र स्व-उन्नति का सूचक है, क्योंकि वह अपकार करने वाले की दुर्गति आदि दुःख की ओर से निरपेक्ष है अर्थात् उपकार करने वाले का अहित-अशुभ-दुःख आदि वह नहीं चाहता।-[७].
एवं सामायिकादन्यदवस्थान्तरभद्रकम् । स्याच्चित्तं तत्तु संशुद्धज्ञ यमेकान्तभद्रकम् ॥८॥
भावार्थ-इस प्रकार से सामायिक से भिन्न चित्त अर्थात् उपयुक्त कुशल चित्त मोहयुक्त अवस्था में भद्र अर्थात् कल्याणकारी होता है, पर हर बार नहीं, किन्तु सामायिक को तो संपूर्ण शुद्ध अर्थात् सर्वतो निर्दोष होने के कारण सर्वथा कल्याणकारी समझना चाहिए-एकान्त हितकर मानकर उसका सदैव पाचरण करना चाहिये-[].