Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 103
________________ भावार्थ-केवलज्ञान प्रात्मा का स्वभावरूप है, परन्तु जैसे रत्न जबतक जमीन में होते हैं, तबतक रत्नकिरणें भी जमीन में ढकी रहती हैं, और जब कोई कुशल कलाकार जमीन में से रत्नों को निकालकर निर्मल करता है तब रत्नकिरणें सर्व दिशाओं को प्रकाशित करती हैं; वैसे ही केवलज्ञान भी कर्म-मल से ढका हुआ है, और कर्म-मल-क्षय के उपायों द्वारा मल का क्षय होते ही केवलज्ञान प्रगट होता है-[३]. प्रात्मनस्तत्स्वभावत्त्वाल्लोकालोकप्रकाशकम् । प्रत एव तदुत्पत्तिसमयेऽपि यथोदितम् ॥४॥ भावार्थ-लोकालोक को प्रकाशित करना यह प्रात्मा का स्वभाव होने से केवलज्ञान भी लोकालोक प्रकाशक है, इसी कारण से केवल ज्ञान की उत्पत्ति के समय भी वह लोकालोक-प्रकाशक होता है-[४]. प्रात्मस्थमात्मधर्मत्वात्सं वित्त्या चैवमिष्यते । गमनादेरयोगेन नान्यथा तत्त्वमस्य तु ॥५॥ भावार्थ-वह केवलज्ञान आत्मा का धर्मस्वरूप होता है और ज्ञान अर्थात् स्वानुभव से आत्मा में ज्ञात होता है । वह आत्मा के बाहर ज्ञेय पदार्थों के पास प्राता जाता भी नहीं है । इन कारणों से वह मात्मा में ही रहता है, अन्यथा केवलज्ञान का केवलत्व अर्थात् सकलत्व या पूर्णत्व ही नहीं रहेगा। [५]. - कोई शंकाकार शंका करे कि 'प्रात्मा चन्द्र समान है और ज्ञान चन्द्रप्रभा समान है, ऐसा जो कथन है तदनुसार जैसे चन्द्रप्रभा चन्द्र से बाहर

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