________________
८६
वचनं चैकमप्यस्य हितां भिन्नार्थगोचराम् । भूयासामपि सत्त्वानां प्रतिपत्ति करोत्यबम् ॥४॥
भावार्थ-उन परमतारक जगद्गुरु का मात्र एक ही वचन अनेक रत्त्वों अर्थात् प्राणियों को विविध वस्तुविषयक हितकारक प्रतीति सुगम रीति से करवाता है-[४].
मचिन्त्यपुण्यसंभारसामर्थ्यादेतदीदृशम् । तथा चोत्कृष्टपुण्यानां नास्त्यसाध्यं जगत्त्रये ॥५॥
भावार्थ-अकल्पनीय पुण्यसंचय के बल से परमतारक श्री तीर्थ कर भगवानों का वचन ऐसा अनुपम होता है। सचमुच उत्कृष्ट पुण्यशाली प्रात्मानों के लिए तीनों जगत में कुछ भी प्रसाध्य नहीं है [५].
मभव्येषु च भूतार्था यदसौ नोपपद्यते । तत्तेषामेव दौगुण्यं ज्ञेयं भगवतो न तु ॥६॥
भावार्थ—कोई यदि शंका करे कि 'भगवान की देशना में इतनी प्रचण्ड शक्ति है, तो भी वह प्रभव्यों को कोई फलदायी नहीं होती। मवे. उसे निष्फल कहना चाहिए।' इस शंका का उत्तर इस श्लोक में प्राचार्य देते हैं—पुनः अभव्य प्रात्माओं को प्रभु की भूतार्थ अर्थात् सत्यदेशना जो नहीं प्रभावित करती, उसमें अभव्यों का ही दोष है, न कि भगवान का-[6].
दृष्टश्चाभ्युदये भानोः प्रकृत्या क्लिष्टकर्मणाम् । अप्रकाशो ह्य लूकानो तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥७॥