Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 111
________________ ६४ यदि वह यों कहे कि भूख आदि का दुःख दूर करने के लिये है । तो पुनः उससे पूछना चाहिये कि क्षुधानिवारण का प्रयोजन अर्थात् फल क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में यदि वह कह दे कि "स्वास्थ्य प्राप्ति अनादि- संभोग का प्रयोजन है ।" तो ऐसा प्रत्युत्तर मिलते ही उससे तत्काल कह दो -- सिद्ध सदा स्वस्थ ही होते है । – [३-४] अस्वस्थस्यैव भैषज्यं स्वस्थस्य तु न दीयते । अवाप्तस्वास्थ्यकोटीनां भोगोऽन्नादेरपार्थ कः ॥ ५ ॥ भावार्थ -- प्रौषध तो सदैव अस्वस्थ को ही दिया जाता है, स्वस्थ को कभी नहीं दिया जाता । अतः स्वास्थ्य की चरमसीमा को - पराकाष्ठा को पाये हुए सिद्धों - परम सिद्धों के लिए अन्नादि का उपयोग निरर्थक है। --[५]. अकिश्चित्करकं ज्ञेयं मोहाभावाद्रताद्यपि । तेषां कण्ड्वाद्यभावेन हन्त कण्डूयनादिवत् ॥६॥ भावार्थ - जिस प्रकार खुजली आदि न आती हो तो खुजाना आदि निरर्थक है, उसी प्रकार से सिद्धों में मोह कहीं सर्वथा अभाव होने से मैथुन आदि भी निष्प्रयोजन है । - [६]. अपरायत्तमौत्सुक्यरहितं निष्प्रतिक्रियम् । सुखं स्वाभाविकं तत्र नित्यं भयविवर्जितम 119 11 · भावार्थ - मोक्ष में सुख बिलकुल स्वतन्त्र, उत्सुकता - श्राकांक्षा विघ्न से धीरता आदि से रहित, किसी भी प्रकार के विघ्न से सर्वथा मुक्त, स्वाभाविक, नित्य, कालिक और भयमुक्त होता है । -- [ ७ ].

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