Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 94
________________ ७७ भावार्थ--ऊपर के श्लोक में शंका करने वाले महानुभावों को इस श्लोक में उत्तर देते हुए कहते हैं-तीर्थ कर नाम कर्म के उदय से उन तारकों का ऐसा आचार ही है कि वे समस्त प्राणियों के हितमें ही प्रवृत्ति करें । [ २ ]. धर्माङ्गल्यापनार्थं च दानस्यापि महामतिः । अवस्थौचित्ययोगेन सर्वस्यैवानुकम्पया ॥३॥ भावार्थ--पुनः दान लेने वाले और देने वाले दोनों की उचित परिस्थितियों का तालमेल होने से गृहस्थ एवं त्यागी महात्मा आदि सभी को अनुकंपावश दिये गये दान को भी धर्म के अंग रूप में बताने हेतु भगवान ने महादान दिया है । [ ३ ]. शुभाशयकरं ह्य तदाग्रहच्छेदकारि च। सदभ्युदयसाराङ्गमनुकम्पाप्रसूति च ॥४॥ भावार्थ--अनुकम्पाजन्य यह दान शुभाशयता उत्पन्न करने वाला, आग्रह अर्थात् ममत्व का नाश करने वाला, तथा पुण्योदय में प्रधान कारणभूत है--[४]. जैन साधु किसी गृहस्थ को दान नहीं दे सकते ऐसा सामान्य नियम है । अतः उनके विरुद्ध दीखने वाले आचार्यश्री के कथन के समर्थन में आचार्य श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं ज्ञापक चात्र भगवान निष्क्रान्तोऽपि द्विजन्मने । देवदूष्यं ददद्धीमाननुकम्पाविशेषतः .. ॥५॥

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