Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 96
________________ ७ एवं न कश्चिदस्यार्थस्तत्त्वतोऽस्मात्पूसिध्यति । प्रपूर्वः किन्तु तत्पूर्वमेवं कर्म प्रहीयते e ॥ ८ ॥ भावार्थ--इस प्रकार से तीर्थङ्कर देव के दान से वास्तविक दृष्टि से कोई अपूर्व अर्थ सिद्ध नहीं होता, परन्तु इस प्रकार के महादान से तीर्थङ्कर भगवान अपने पूर्व के तीसरे भव में बाँधे हुए तीर्थङ्कर नाम कर्म को क्षीरण करते हैं, अर्थात् खपाते हैं -- [८]. अन्यस्त्वाहास्य राज्यादिप्रदाने दोष एव तु । महाधिकरणत्वेन तत्त्वमार्गेऽविचक्षणः राज्यादिदानेऽपि तीर्थकृतो दोषाभावप्रतिपादनाष्टकम् [ २८ ] राज्यऋद्धि वह नरकऋद्धि अथवा राजेश्वरी सो नरकेश्वरी इस प्रसिद्ध व्यवहारसूत्र को लक्ष्य में रखकर राज्य के दोष प्रर्थात् महापाप का आधार होने से उसके दान में दोष है, ऐसी शंका को प्रस्तुत करते हुए शंकाकार की शंका को आचार्य श्री बताते हैं :-- ॥ १ ॥ भावार्थ वास्तविक मार्ग समझने में अकुशल अर्थात् अविचक्षण कोई मनुष्य कह सकता है राज्य आदि के महापाप का आधार-कारण रूप होने के कारण उसके दान में दोष ही है - [१] .

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