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कि हाधिकदोषेभ्यः सत्त्वानी रक्षणं तु यत् । उपकारस्तदेवेषी प्रवृत्यङ्ग तथास्य च
॥ ६ ॥
भावार्थ- पुनः लोगों का अधिक दोषों से रक्षण एवं उद्धार भी उपकार है, तथा वह तीर्थङ्कर की प्रवृत्ति का अंग भी है -- [ ६ ].
रक्षणं
यद्वद्गर्ताद्याकर्षणेन
तु ।
नागादे
कुर्वन्न
दोषवांस्तद्वदन्यथाऽसम्भवादयम्
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बचाने हेतु खड्ड े में
भावार्थ -- जैसे किसी मनुष्य को सर्प के दंश का भय पैदा होते ही यदि कोई दूसरा मनुष्य भयग्रस्त को उठाकर फेंक दे, तो भी वह दोष वाला नहीं गिना जाता गिना जाता है, वैसे ही दूसरा कोई उपाय अर्थात् कारण विवाह धर्मादि का उपदेश देने वाले श्री दोषवान न होकर अमर्यादित पाप को रोककर मर्यादा का संरक्षण सिखाने वाले एवं यथासंभव ज्यादा से ज्यादा पाप से बच सकें ऐसा रास्ता बताने वाले उपकारी ही है-- [ ७ ].
तीर्थङ्कर भगवान
इत्थं
चैतदिहैष्टव्यमन्यथा
कुधर्मादिनिमित्तत्वाद्दोषायैव
॥ ८ ॥
भावार्थ - - इस प्रकार से राज्यादि के दान को भी निर्दोष रूप से स्वीकार करना चाहिये, वरना धर्मदेशना भी अन्य धर्मं, शास्त्र, चारित्र, आदि के निमित्त रूप होने से सदोष कहलायेगी - [ ८ ].
किन्तु उपकारी ही
रास्ता न होने के
देशनाप्यलम् । प्रसज्यते