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उक्त शंका का समाधान आचार्य करते हैं अप्रदाने हि राज्यस्य नायकाभावतो जनाः । मिथो वै कालदोषेण मर्यादाभेदकारिणः ॥२॥ विनश्यन्त्यधिकं यस्मादिह लोके परत्र च । शक्तौ सत्त्यामुपेक्षा च युज्यते न महात्मनः ॥३॥ तस्मात्तदुपकाराय तत्पदानं गुणावहम् । परार्थदीक्षितस्यास्थ विशेषेण जगद्गुरोः ॥४॥
भावार्थ--राज्य का प्रदान न किया जाए, तो काल दोष के कारण अपनी अपनी मर्यादा के भंग करने वाले मनुष्य नेता का अभाव होने के कारण परस्पर लड़ाई करने से इस लोक और परलोक में अधिक विनाश को पायेंगे । पुनः विनाश को रोकने की शक्ति होने पर भी महात्मानों की उपेक्षा करना अनुचित है, अतः परोपकार हेतु दीक्षित जगद्गुरु तीर्थङ्कर भगवान का विश्व हितार्थ दिया गया राज्यदान विशेष रूप से हितकर है-[२-३-४].
एवं विवाहधर्मादौ तथा शिल्पनिरूपणे । न दोषो ह्य त्तमं पुण्यमित्थमेव विपच्यते ॥५॥
भावार्थ-इसी प्रकार से विवाहधर्म, कुलधर्म, ग्रामधर्म, राजधर्म के अंगीकार तथा शिल्प निरूपण में दोष नहीं है, क्योंकि उत्कृष्टतम पुण्य अर्थात् तीर्थ कर नामक कर्म का विपाक इसी प्रकार से होता है-[५].