________________
७८
भावार्थ-यहां साधु के दान के सम्बन्ध में स्वयं वर्तमान शासन वर्द्धमान स्वामी तीर्थ कर ही दृष्टान्त रूप हैं कि गृहस्थाश्रम का त्याग कर निकलने वाले परम बुद्धिनिधान भगवान ने भी अन कम्पावश ब्राह्मण को देवदूष्य दिया था-[५].
इत्थमाशयभेदेन नातोऽधिकरणं मतम् अपित्वन्यद्गुणस्थानं गुणान्तरनिबन्धनम् ॥६॥
भावार्थ-यो आशय भेद होने के कारण गृहस्थ को दान देने पर भी अधिकरण अर्थात् पापप्रवृत्ति वाला नहीं माना गया। गृहस्थ का गुणस्थान साधु के गुणस्थान का कारण रूप है, ऐसा माना गया है-[६].
ये तु दानं प्रशंसन्तीत्यादिसूत्रं तु यत्स्मृतम् । अवस्थाभेदविषयं द्रष्टव्यं तन्महात्मभिः
॥७॥
भावार्थ-पुनः जो दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों के वध के इच्छुक हैं और जो उसकी निंदा करते हैं वे वृत्तियों का नाश करते हैं' ऐसा दान का निषेधक जो सूत्र-श्लोक मिलता है, उसे महात्म पुरुष प्रवस्थाविषयक अर्थात् अमुक खास अवस्था को उपलक्ष कर कहा गया है ऐसा जानें। मिलने वाला सूत्र-श्लोक इस प्रकार का है--
जेउ दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं । जेउ णं पडिडसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते ॥ १ ॥ (मर्थ ऊपर के भावार्थ में आ गया है)--[७].