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वरणीय कर्मोदय के कारण) वह दीक्षा न ले सके तो भी माता-पिता का यह पवित्र कर्तव्य है कि वे उसे बार-बार प्रेरित करें। यहां तक बताया है कि--संतान युवास्था में प्रवेश करे तब भी उसे कहें--भाई ! यह युवावस्था है, यह ही वह अवस्था है कि जिसमें पूरी शक्ति से
आराधना हो सकती है, अत: प्रव्रज्या के पथ पर प्रवृत्त होने की यही सही अवस्था है। विशुद्ध ब्रह्मचर्यमय जीवन के साथ-साथ संयम मिल जाय तो महान् भाग्य ! कई बार समझाने पर भी पुत्र-पुत्री न माने और युवावस्था के कारण उनके संसार-सम्बन्ध जोड़ने का अवसर आये, तब भी जनक-जननी तो यह ही माने कि सन्तान बेचारी अभागी है, बहुल संसारी है, अभी इसका भवभ्रमण बाकी है। इससे माता-पिता के मन में अत्यन्त खेद हो। सम्बन्ध के समय में भी अपना दायित्व समझकर माता-पिता उसमें इसलिए पड़ें कि संतान उन्मार्गी न हो। सम्बन्ध के समय में माता-पिता के मन में हर्ष न होकर उदासीनता रहे । वे सोचें अरेरे ! एक नया पाप के अध्याय अर्थात् संसार का पन्ना खुल रहा है । हम संसार में पड़े हैं इसलिए हमें भी इसका निमित्त बनना पड़ता है। अभी भी यह समझ जाय तो अच्छा ! हम भी पाप से बच जायें ! आखिर जब लग्न का अवसर आये, लग्न का मंडप भी तैयार हो जाय, शादी की शहनाई भी गूज उठे, शादी के गीतों से घर भर जाय, सारी तैयारियां हो जायँ, फिर भी माता-पिता उसे समझावें-देखो, अभी भी तुम्हारी भावना बढ़ती हो, तो हम इस लग्न के अवसर को दीक्षा में पलट दें, राग के मंच पर ही राग को पछाड़ दें, लग्न के मंडप को दीक्षा का मंडप बनादें, लग्न के जुलूस को