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भावार्थ- बड़ों की सेवा-शुश्रूषा एवं भक्ति यह प्रव्रज्या का प्रारंभिक मंगल है | धर्ममार्ग में प्रवृत्त मनुष्यों के लिये वह बड़ा पूजा स्थान है - [ ७ ].
स कृतज्ञः पुमान् लोके स धर्मगुरुपूजकः । स शुद्धधर्मभाक् चैव य एतौ प्रतिपद्यते
॥ ८ ॥
भावार्थ- वह मनुष्य ही इस लोक में कृतज्ञ है, वह मनुष्य ही धर्मगुरुत्रों का पूजक है, वह मनुष्य ही शुद्ध धर्म का भाजन है जो कि माता-पिता की सेवा करता है - [ 5 ].
इस अष्टक में कई विशेषताएँ हैं जिसमें से कुछ विशेषताओं का निर्देश करते हैं
(१) जब तीर्थंकर भगवान् माता के गर्भ में आते हैं तब मतिज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान से युक्त होते हैं, अत: अपना प्रव्रज्या समय जानते हैं ।
(२) संसारी गृहस्थों को माता-पिता की सेवा, भक्ति, शुश्रूषा अवश्य करनी चाहिए । अगर संसारी अवस्था से ही सेवा के संस्कार नहीं पड़े तो दीक्षा - जीवन में भी वैय्यावच्च के संस्कार पड़ने में कठिनता रहती है । साथ-साथ अन्य लोगों के हृदयों में सद्भाव कम उत्पन्न होता है क्योंकि लोग कहते हैं कि. - माता पिता को दुःख देने वाला दीक्षा में क्या नवीनता करेगा ।