Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 91
________________ ७४ का दान प्रतिदिन देते हैं इस हिसाब से १ वर्ष की दानकी उक्त संख्या परिमित होने के कारण 'महादान' कहना है ।) इस दान की संख्या सर्वथा असंगत है क्योंकि श्रन्यैस्त्वसङ्खयमन्येषां स्वतन्त्रेषूपवते । महच्छन्दोपपत्तितः तत्तदेवेह तद्य ुक्तं ॥ २ ॥ भावार्थ - जबकि दूसरों अर्थात् बौद्ध दर्शनकारों ने अपने शास्त्रों में बोधिसत्त्वों के दान का अपरिमित होना वरिणत किया है, अतः उनके दानको ही महादान कहना युक्तिसंगत है क्योंकि उनके दान में 'महत्' शब्द उचित बैठता है [ २ ]. युक्तिमत् । ततो महानुभावत्वात्तेषामेवेह जगद्गुरुत्वमखिलं सर्वं हि महतां महत् ॥ ३ ॥ भावार्थं — उपर्युक्त महादान द्वारा महानुभावता सिद्ध होने के --- कारण बोधिसत्वों का ही सम्पूर्ण जगद्गुरुत्व युक्तियुक्त है, क्योंकि महान पुरुषों का सभी महत् होता है, [३] . ऊपर कथित शंकाओं का समाधान करते हुए ग्रन्थकार आचार्यश्री फरमाते हैं एवमाह सूत्रार्थं न्यायतोऽनवधारयन् । कश्चिन्मोहात्ततस्तस्य न्यायलेशोऽत्र दर्श्यते ॥ ४ ॥ भावार्थ - मोहवशात् जैन सूत्रों के रहस्यार्थं को न्याय बुद्धि से न समझने वाले कोई दर्शनवाले अर्थात् बौद्धदर्शन वाले उपर्युक्त रीति से

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