Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 85
________________ माता-पिता के उद्वेग को दूर करने, महान सत्पुरुषों की व्यवस्था को सिद्ध करने तथा इष्टकार्य याने दीक्षा ग्रहण को पूर्व तैयारो द्वारा समृद्ध करने हेतु जगद्गुरु का निम्नोक्त अभिग्रह था, ऐसा जिनागमों में कहा गया है--[२-३]. जीवतो गृहवासेऽस्मिन् यावन्मे पितराविमौ । तावदेवाधिवत्स्यामि गृहानहमपीष्टतः ॥४॥ इमो शुश्रूषमाणस्य गृहानावसतो गुरू। प्रव्रज्याप्यानुपूर्येण न्याय्याऽन्ते मे भविष्यति ॥५॥ सर्वपापनिवृत्तिर्यत् सर्वथैषा सतां मता। गुरूद्वेगकृतोऽत्यन्तं नेयं न्याय्योपपद्यते ॥६।। भावार्थ--"जब तक मेरे माता-पिता इस घर में जीवित हैं, तब तक मैं भी स्वेच्छापूर्वक घर में रहूंगा। पुनः घर में रहकर माता पिता की सेवा करने वाले मेरी प्रव्रज्या भी क्रमशः उनके अवसान के बाद ही उचित होगी। चूँकि सभी प्रकार के सभी पापों की निवृत्ति ही सत्पुरुषों को मान्य है, अतः माता-पिता को उद्विग्न करने वाली मेरी प्रव्रज्या भी न्यायसंगत नहीं है"--[४-५-६]. प्रारम्भमङ्गलं ह्यस्या गुरुशुश्रूषणं परम् । . एतौ धर्मप्रवृत्तानो नृणां पूजास्पदं महत् ॥७॥

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