Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 83
________________ चित्तशुद्धि का इतना महत्त्व बताने का कारण यह है कि चित्त की शुद्धता के बिना सभी क्रियाएँ अर्थात् तपश्चर्याएँ एवं आराधनाएं विफल हो जाती हैं और चित्तरूपी रत्न को तो शास्त्रकारों ने भी आध्यात्मिक धन बताते हुए फरमाया है : चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषितं दोषैस्तस्य शिष्टा विपत्तयः । बिना कषाय का चित्तरत्न आन्तरिक धन अर्थात् आध्यात्मिक धन है । जिस मनुष्य का तथोक्त शुद्ध चित्तरत्न चोरी चला गया, उसके पास मात्र दुःख और विपत्तियों के अलावा कुछ भी नहीं बचता। उक्त कथन से यह शंका सहज रूप से हो सकती है कि स्वाभाविक रीति से ही आगमोक्त पद्धति से शुद्ध मन वाले मनुष्यों के उदाहरण अपने को मिलते हैं, तो फिर ज्ञानवृद्ध स्थविर महापुरुषों के प्रसाद की अनिवार्यता क्यों रखी गई है । इस शंका का समाधान करतेहुए ग्रन्थकार आचार्य श्री कहते हैं:-- प्रकृत्या मार्गगामित्वं सदपि व्यज्यते ध्रुवम । ज्ञानवृद्धप्रसादेन वृद्धिं चाप्नोत्यनुत्तराम ॥७॥ भावार्थ--कभी-कभी मन का स्वाभाविक रीति से होने वाला शास्त्रानुसारी रूप भी ज्ञानवृद्ध स्थविर महापुरुषों की कृपा से ही स्पष्ट ज्ञात होता है एवं अनुत्तर विकास को प्राप्त करता है-[७]. दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद्गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः

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