Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 82
________________ भावार्थ-जिस प्रकार से कोई मनुष्य अशुभ अर्थात् गंदे घर में से और अधिक गन्दे घर में जाता है, उसी प्रकार से महापापों के आचरण से मनुष्य खराब गति में से अधिक खराब गति में जाता है-[३]. गेहादगेहान्तरं कश्चिदशुभादितरन्नरः। याति यद्वत्सुधर्मेण तद्वदेव भवाद् भवम, ॥४॥ भावार्थ-जैसे कोई मनुष्य असुन्दर घर में से सुशोभित घर में प्रवेश करता है, उसी प्रकार से सद्धर्म द्वारा मनुष्य अशुभ गति में से शुभ गति में जाता है— [४]. शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं कर्तव्यं सर्वथा नरैः। यत्प्रभावादपातिन्यो जायन्ते सर्वसम्पदः ॥५॥ भावार्थ--अत: मनुष्य को सर्व प्रकार से शुभफलदायी पुण्य कर्म करना चाहिए जिसके प्रभाव से सभी अविनश्वर संपत्तियां उत्पन्न हो जाती हैं--[५]. सदागमविशुद्धेन क्रियते तच्च चेतसा । एतच्च ज्ञानवृद्ध भ्यो जायते नान्यतः क्वचित् ॥६॥ भावार्थ --धर्मशास्त्रों से विशुद्ध होने वाले चित्त द्वारा पुण्यवन्ध होता है और ज्ञानवृद्ध स्थविरों की आज्ञा में रहने से चित्त शुद्ध होता है । ज्ञानवृद्ध स्थविरों की अधीनता के सिवाय दूसरे किसी भी साधन से चित्त कभी भी शुद्ध नहीं होता--[६].

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