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भावार्थ--कोई दूसरा पदार्थ अर्थात् जनक (उत्पादक) उस प्रवाह का हिंसक नहीं गिना जा सकता, क्योंकि प्रवाह-संतान सांवृत मानी काल्पनिक होने से जन्य नहीं बन सकता-[४]. ... यदि बौद्ध यह कह दें कि–'पदार्थ का जनक ही हिंसक हैं तो उसका जबाब यह रहा :· न च क्षणविशेषस्य तेनैव व्यभिचारतः ।
तथा च सोऽप्युपादानभावेन जनको मतः ॥५॥
भावार्थ ---अमुक पदार्थ का जनक अर्थात् उत्पादक ही उसका हिंसक है ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि नाश पाता हुआ पूर्वगत । पदार्थ स्वयं उपादान भाव से उत्तरवर्ती पदार्थ का जनक है, यह तुम स्वयं भी मानते हो। इस कारण से स्वयं ही स्वयं का हिंसक बन जायगा-[५]..
तस्यापि हिंसकत्वेन न कश्चित्स्यादहिंसकः । जनकत्वाविशेषेण नैवं तद्विरतिः क्वचित् ॥६॥
भावार्थ-प्रत्येक गस्तु का जनकरूप होने से यदि प्रत्येक को हिंसक मान ले तो कोई भी मनुष्य अथवा स्वयं बुद्ध भी अहिंसक नहीं रह सकेंगे और इस रीति से हिंसा का अभाव सर्वदा असंभव हो रहेगा, अर्थात् अहिंसा जैसे सर्व हितकर सर्वधर्म के मूल का अस्तित्त्व ही समाप्त हो जायगा-[६].
उपन्यासश्च शास्त्रेऽस्याः कृतो यत्नेन चिन्त्यताम् । विषयोऽस्य यमासाद्य हन्तष सफलो भवेत् ॥७॥