Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 57
________________ ॥ ८ ॥ इष्यते चेत् क्रियाप्यस्य सर्वमेवोपपद्यते । मुख्यवृत्त्याऽनघं किन्तु परसिद्धान्तसंश्रयः भावार्थ--पदि “एकान्त नित्य आत्मा कुछ क्रिया भी करती है" इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लें, तो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह प्रादि निर्दोष तत्त्व भी तात्त्विक दृष्टि से घट सकते हैं परन्तु इस सिद्धान्त को स्वीकार करने से एकान्त नित्य आत्मा को अर्थात् जनों के मत को स्वीकार करना पड़ेगा। पाखिरकार सत्य ही मेरा है, इस उक्ति अनुसार चलने वालों को, सही दृष्टि से देखा जाय, तो जानते अजानते जैन दृष्टि को स्वीकार करना ही पड़ता है। फिर वह आसानी से करे या और तरीके से करें--[८]. एकान्तानित्यपक्षखण्डनाष्टकम् [१५] क्षणिकज्ञानसंतानरूपेऽप्यात्मन्यसंशयम् । हिंसादयो न तत्त्वेन स्वसिद्धान्तविरोधतः ॥१॥ भागार्थ--क्षणिक ज्ञान-संतान रूप आत्मा में भी हिंसादिक पास्तविक रीति से अर्थात् निःशंक रीति से घट नहीं सकते क्योंकि उसमें क्षणिक सिद्धान्त वादी बौद्धों के स्वयं के सिद्धान्तों का विरोध होगा-[१].

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