Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 66
________________ ४६ नीचे दो श्लोकों द्वारा परस्पर के विसंवाद को दूर करने हेतु ब्राह्मणों की ओर से फरमाते हैं : -- इत्थं जन्मंत्र दोषोऽत्र न शास्त्राद्बाह्यभक्षणम् । प्रतीत्यैष निषेधश्च न्यायो वाक्यान्तराद्गतेः ॥ ४ ॥ "प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया । यथाविधि नियुक्तस्तु प्रारणानामेव वाऽत्यये" ॥ ५ ॥ भावार्थ - व्युत्पत्ति की अपेक्षा से भक्षक के भक्ष्य रूप में जन्म लेना रूप दोष यहाँ पर शास्त्र सम्मत नहीं हैं पर शास्त्र में नहीं कहे गये मांसभक्षण की अपेक्षा से उक्त दोष तथा मांसभक्षरण का दोष उचित है, क्योंकि शास्त्र के दूसरे वाक्यों से शास्त्र सम्मत मांसभक्षण की सिद्धि होती है । मनुस्मृतिकार स्वयं ही मनुस्मृति में पंचम अध्याय के २७ वें श्लोक में कहते हैं कि नीचे दर्शित चार प्रसंगों में प्रत्येक मनुष्य को मांस खाना चाहिये । प्रत्येक मनुष्य को प्रोक्षित मांस (वैदिक मंत्रों द्वारा 'प्रोक्षण' नामक संस्कार पाने के बाद में यज्ञ में हनन किये गये पशु का मास) खाना चाहिये, (२) ब्राह्मणों की इच्छा के कारण एक बार मांस खाना चाहिये, (३) व्याधि के कारण अथवा अन्य खाद्य पदार्थ के अभाव में प्रारण-नाश का संकट आये तो मांस चाहिए, (४) श्राद्ध आदि में शास्त्रविधि अनुसार आम ंत्रित मनुष्यों को उपयोगी मांस खाना चाहिये - [ ४ - ५.] अब आचार्यश्री मांसभक्षण के परस्पर विरोधों एवं मांस भक्षण का अनौचित्य बताते हुए प्रत्युत्तर देते हैं:

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