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मादकतापूर्वक उसका निर्माण होने के कारण वह सोड कम दोष वाली है, अतः उसे निर्दोष कहना अर्थात् 'उस में दोष नहीं है, यह कहना केवल साहस (धृष्टता) ही है-[१].
किं वेह बहुनोक्तेन प्रत्यक्षेणैव दृश्यते । दोषोऽस्य वर्तमानेऽपि तथा भण्डनलक्षणः ॥२॥
भावार्थ-अथवा शराब के लिये ज्यादा कहने की कोई आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि वर्तमान काल में भी उसका यादवास्थली (में हुई) जैसी लड़ाई, झगड़े, टंटे, फिसाद रूप दोष प्रत्यक्ष दीखता है--[२].
धूयते च ऋषिमंद्यात् प्राप्तज्योतिर्महातपाः । स्वर्गाङ्गनाभिराक्षिप्तो मूर्खवन्निधनं गतः ॥३।।
भावार्थ--पुनः ऐसा कहा जाता है कि--ज्ञान रूप प्रकाश को पाये हुए कोई एक महातपस्वी ऋषि स्वर्गसुन्दरियों से मोहित होकर मद्यपान करने से मूर्ख की भांति मरण की शरण हुए--[३].
कश्चिदृषिस्तपस्तेपे भीतः इन्द्रः सुरत्रियः। क्षोभाय प्रेषयामास, तस्यागत्य च तास्तकम् ॥४॥ विनयेन समाराध्य वरदाभिमुखं स्थितम् । जगुर्मछं तथा हिंसां सेवस्वाब्रह्म वेच्छया ॥५॥ स एवं गदितस्ताभिर्द्व योनरक हेतुताम् । मालोच्य मद्यरूपं च शुद्ध कारण कम् ॥६॥ मद्यं प्रपद्य तद्भोगान्नष्टधर्मस्थितिमंदात् । विदंशार्थमजं हत्वा सर्वमेव चकार सा
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