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"प्रङ्गेष्वेव जरां यातु यत्वयोरकृतं मम । नरः प्रत्युपकाराय विपत्सु लभते फलम्" ॥६॥
भावार्थ--पुनः वाल्मीकि प्रादि कितने सूक्ष्म बुद्धि वाले जैनेतर विद्वानों ने भी दूसरी रीति से यही अर्थ समझकर बाली के मुख से निम्न शब्द कहलाए हैं 'उपकृत मनुष्य प्रत्युपकार का फल उपकारी की कठिनाई के समय पाता है और तुमने (रामचन्द्रजी ने) मेरे ऊपर अति उपकार किया है, इस कारण से बदला देने के लिये मैं तुम्हें कठिनाइयों में देखने की भावना भी नहीं कर सकता। इसके लिये मेरे गात्रों में वृद्धत्व घर करो--[५-६].
एवं विरुद्धदानादौ हीनोत्तमगतेः सदा। प्रव्रज्यादिविधाने त्र शास्त्रोक्तन्यायबाधिते ॥७॥ द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो धर्मव्याघात एव हि। सम्यग्माध्यस्थ्यमालम्ब्य श्रुतधर्मव्यपेक्षया ॥८॥
भावार्थ--इसी प्रकार से निषिद्ध दारादि का सेवन करने से एवं शास्त्रकथित नियमों से विरुद्ध दीक्षा आदि देने में अर्थात् हीन वस्तु का दान अथवा अपात्र को दीक्षा आदि देने में दीखने में तो हमेशा उत्तम दीखता है, पर आगमानुसार वर्णित सम्यक् समभाव की अपेक्षा से धर्म का द्रव्य-क्षेत्र, काल और भाव से नाश ही होता है, ऐसा समझना चाहिये-[७-८].