Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ गृहीत्वा ग्लानभैषज्यप्रदानाभिग्रहं यथा । तदप्रातौ तदन्तेऽस्य शोकं समुपगच्छतः ॥२॥ भावार्थ--धार्मिक महानुभाव सत्पुरुषों को धर्म का सदैव विवेक बुद्धि से विचार करना चाहिये, नहीं तो बीमार को औषध आदि अभिग्रह ग्रहण करके बीमार न मिलने पर अथवा बीमार को औषध प्रादि देने के बाद शोक करने वाले अभिग्रहधारी की भांति धर्मबुद्धि द्वारा भी विवेक के अभाव से धर्म का विघात होता है--[१-२]. गृहीतोऽभिग्रहः श्रेष्ठो, ग्लानो जातो न च क्वचित् । अहो मेऽधन्यता कष्टं, न सिद्धमभिवाञ्छितम् ॥३॥ भावार्थ-अभिग्रह ग्रहण करना श्रेष्ठ है, पर कभी यदि बीमार न हो, या बीमार न मिले तो अभिग्रहधारी विचार करता है कि महो ! मैं अधन्य हूँ, अफसोस है ! कि इष्ट सिद्धि न हुई-[३]. एवं ह्येतत्समादानं ग्लानभावाभिसन्धिमत् । साधूनां तत्त्वतो यत्तद् दुष्टं ज्ञेयं महात्मभिः ॥४॥ भावार्थ--ऊपर कथित रीति से ग्लान भाव की अभिसंधिवाला अर्थात् ग्लान भाव की इच्छा करने वाला साधुओं का जो मभिग्रह ग्रहण है, उसे महात्मा पुरुष दुष्ट समझ--[४]. लौकिकैरपि चैषोऽर्थों दृष्टः सूक्ष्मार्थशिभिः । प्रकारान्तरतः कश्चिदत एतदुदाहृतम् ॥५॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114