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स्नायादेवेति न तु यत्ततो होनो गृहाश्रमः। तत्र चैतदतो न्यायात्प्रशंसाऽस्य न युज्यते
॥४॥
भावार्थ--पुनः स्नान करना ही चाहिये, ऐसा अनिवार्य नहीं है, अतः गृहस्थाश्रम ब्रह्मचर्याश्रम से निम्न कक्षा का है. और उक्त निर्दोष मैथुन गृहस्थाश्रम में ही संभव हैं इस कारण से तत्त्वतः (पारमार्थिक दृष्टि से या न्याय दृष्टि से) मैथुन की प्रशंसा अनुचित है-[४].
मैथुन की प्रशंसा को उचित सिद्ध करने वालों को प्राचार्यश्री उत्तर दे रहे हैं।
प्रदोषकीर्तनादेव प्रशंसा चेत् कथं भवेत् । अर्थापत्या सदोषस्य दोषाभाव प्रकीर्तनात्
॥५॥
भावार्थ--'न च मैथुने' अर्थात् 'मैथुन सेवन में दोष नहीं है' ऐसे दोष निषेधक कथन से ही मैथुन की प्रशंसा सिद्ध होती है, ऐसा यदि तुम मानते हो तो अर्थापत्त्या--वेदार्थ कथन द्वारा सदोष सिद्ध मैथुन की निर्दोषता के गान मात्र से मैथुन की प्रशंसा कैसे संभव है ? अर्थात् वेद प्रमाण द्वारा जो सदोष सिद्ध हो गया है, वह अन्य प्रमाण द्वारा निर्दोष सिद्ध हो ही नहीं सकता, अतः मैथुन की प्रशंसा सर्वथा असंभव ही है--[५].
तत्र प्रवृत्तिहेतुत्वात्त्याज्यबुद्धरसम्भवात् । विध्युक्त रिष्टसंसिद्धरुक्तिरेषा न भद्रिका
॥६॥