Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 79
________________ ६२ यस्तून्नतौ यथाशक्ति सोऽपि सम्यक्त्वहेतुताम् । अन्येषां प्रतिपद्यह तदेवाप्नोत्यनुत्तरम् ॥३॥ प्रक्षीणतीव्रसंक्लेशं प्रशमादिगुणान्वितम् । निमित्तं सर्वसौख्यानां तथा सिद्धिसुखावहम् ॥४॥ भावार्थ-किन्तु जो मनुष्य शासन की उन्नति (प्रभावना-उज्ज्वलता शोभा) आदि में जुड़ता है वह भी दूसरों को सम्यक्त्व की प्राप्ति करवाने में हेतुभूत बनने वाला होने के कारण तीव्र संक्लेश के अर्थात् मनन्तानुबन्धी कषाय के क्षय वाला, प्रशम आदि गुणों वाला, समस्त सुखों का निमित्त भूत, तथा सिद्धि सुख की सम्प्राप्ति करवाने वाला अनुत्तर अनुपम सम्यक्त्व प्राप्त करता है--[३-४]. प्रतः सर्वप्रयत्नेन मालिन्यं शासनस्य तु। प्रेक्षावता न कर्तव्यं प्रधानं पापसाधनम् ॥५॥ भावार्थ —प्रता बुद्धिमान पुरुषों को शासन की मलिनता किसी भी प्रकार से नहीं करनी चाहिये क्योंकि वह पाप की उत्कृष्ट साधन रूप होती है । अभिप्राय यह है कि ऐसे सभी निमित्तों, साधनों या कार्यकलापों से दूर रहना चाहिये जिससे शासन की मलिनता होती हो। अपनी मलिनता या अपात्रता अपना अहित करती है, पर शासन के साथ सम्बद्ध कार्यों की अपनी मलिनता अपने साथ साथ शासन की अपभ्राजना का कारण बनती है और स्वयं उसमें निमित्त कारण होने से हम उत्कृष्ट पापबन्ध को प्राप्त करते हैं। अतः इन विषयों से सर्वथा सजग रहना चाहिये। अपने से बने तो यथाशक्य शासन की

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