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सज्यते ।
प्रवासावदोषश्चेन्निवृत्तिर्नास्थ अन्यदाऽभक्षणादत्रा भक्षणे दौषकीर्तनात्
" यथाविधि नियुक्तस्तु यो मांसं नात्तिवै द्विजा । स प्रेत्य पशुतां याति सम्भवानेकविंशतिम् "
॥ ६ ॥
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भावार्थ - यह श्लोक मनुस्मृति में भी आता है, पर श्लोक का पूर्वार्द्ध इस प्रकार से है - नियुक्तस्तु यथान्यायं, यो मांसं नाति मानवः । ( श्र० ५, श्लो० ३५ ) ' न मांस भक्षणे दोषः ' - अर्थात् मांसभक्षण में दोष नहीं है, इस वचन का यदि यह अर्थ हो कि शास्त्रविहित मांसभक्षण में दोष नहीं है, तो मांसभक्षरण का त्याग कभी नहीं होगा, क्योंकि शास्त्र विहित प्रसंगों को छोड़कर उसका सर्वथा अभक्षरण कहा ही है, तथा शास्त्रविहित प्रसंग पर मांस के अभक्षण में शास्त्र ने दोष बताया है । जैसे "यथाविधि प्रवृत्त किया गया जो ब्राह्मण मांस नहीं खाता वह परलोक में — जन्मान्तर में इक्कीस भव तक पशुता को पाता है ।" उस से जिस प्रकार के भक्षण का सर्वथा निषेध हैं, उसके लिये 'निवृत्तिस्तु महाफला' यह कथन सर्वथा व्यर्थ अर्थात् निरर्थक है और जिसका त्याग करने से दोष लगना है उसका त्याग भी निकम्मा प्रर्थात् निरर्थक है, अत: मांसभक्षण का कभी त्याग नहीं होगा - [ ६-७ ].
'निवृत्तिस्तु महाफला' स्मृतिवाक्य निरर्थक है ऐसा ऊपर के श्लोक से सिद्ध होने पर भी तुम यदि कहते हो कि 'निवृत्ति का अर्थ परिव्राजकता, साधुता, गृहस्थाश्रम का त्याग याने कि हिंसादि का त्याग ऐसा समझना है, इस हेतु से स्मृति वाक्य सार्थक है, तो आचार्यश्री