Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 65
________________ ४५ अभिप्राय यह है कि मांस भक्षण के किसी भी तर्क का कोई मूल्य नहीं है - [ - ] . मसिभक्षणदूषणाष्टकम् [25] ॥ १ ॥ अन्योऽविमृश्य शब्दार्थं न्याय्यं स्वयमुदीरितम् । पूर्वापरविरुद्धार्थमेवमाहात्र वस्तुनि "न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला " "मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः” । ३ ॥ ॥२॥ भावार्थ -- जैन से अन्य यानी ब्राह्मण महानुभावों ने भी स्वयं 'मांस' शब्द का अर्थ न्यायसंगत कहा है, फिर भी पूरी तरह विचार किये बिना ही मांस भक्षरण के बारे में ब्राह्मण महानुभाव भी परस्पर विरोधी अर्थ इस प्रकार से कहते हैं : -- मनुस्मृति (अध्याय ५ श्लोक ५५, ५६) में कहा गया है - " मांस भक्षण में दोष नहीं है, मद्यपान या मैथुन सेवन में भी दोष नहीं है, क्योंकि प्राणियों की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है, फिर भी उसका त्याग महाफलदायी है ।" "जिसका मांस मैं यहाँ खा रहा हूं वह मुझे जन्मांतर में अर्थात् आगे के भवों में खायेगा " यह 'मांस' शब्द का मांसत्व (व्युत्पत्त्यर्थक भाव ) है, ऐसा विद्वान् महानुभाव कहते हैं-- [१-२-३].

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