Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 64
________________ भावार्थ-और इस रीति से तो भिक्षु के मांस का निषेध सर्वथा अनुचित है, एवं अस्थि आदि भी भक्ष्य बनेंगे, क्योंकि वह भी तो प्राणी के अंगरूप से समान हैं--[५]. एतावन्मात्रसाम्येन प्रवृत्तिर्यदि चेष्यते । जायायां स्वजनन्यां च नीत्वात्तुल्यैव साऽस्तु ते ॥६॥ भावार्थ--यदि मात्र प्राणियों के अंग की समानता के सिद्धान्त को लेकर मांस भक्षण की प्रवृत्ति तुम्हें मान्य है, तो स्त्रीत्व सामान्य होने के कारण अपनी पत्नी और माता दोनों के साथ तुम्हारा समान पत्नी रूप या मातारूप व्यवहार होना चाहिये--[६]. तस्माच्छास्त्र च लोकं च समाश्रित्य वदेद् बुधः । सर्वत्रंवं बुधत्वं स्यादन्यथोन्मत्ततुल्यता ॥७॥ भावार्थ--इसके लिये बुद्धिमान (पण्डितों) को शास्त्रवचन और लोकव्यवहार (महाजन पंथ) का आधार लेकर भक्ष्याभक्ष्य, फेयापेय आदि व्यवहार में बोलना चाहिये, इसी में पण्डित की बुद्धिमानी है, अन्यथा तो वह उन्मत्त तुल्य है, पागल जैसा है--[७]. शास्त्रे चाप्तेन वोऽप्येतन्निषिद्ध यत्नतो ननु । लङ्कावतारसूत्रादौ ततोऽनेन न किञ्चन ॥८॥ ... भावार्थ- 'लंकावतार' आदि बौद्ध शास्त्रग्रन्थ में तुम्हारे प्राप्त पुरुष बुद्धदेव ने भी आदरपूर्वक मांस भक्षण का निषेध किया है, इस कारण से मांस-भक्षण के पक्ष में किसी भी तर्क का कोई प्रयोजन नहीं है,

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