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स्मरणप्रत्यभिज्ञानदेह संस्पर्शवेदनात् ।
अस्य नित्यादिसिद्धिश्च तथा लोकप्रसिद्धतः
॥ ६ ॥ भावार्थ - स्मरण ( भूत काल में अनुभव की गई वस्तु की वर्तमान काल में स्मृति - या - चिन्तन), प्रत्यभिज्ञान (भूतकाल में अनुभव की गई बस्तु का वर्तमान काल में उपस्थित वस्तु के साथ सम्बन्ध का ज्ञान) और शरीर के स्पर्श से होने वाले ज्ञान द्वारा तथा लोकानुभव द्वारा नित्यानित्य रूप से एवं शरीर से भिन्नाभिन्न रूप से आत्मा सिद्ध होता है - [ ६ ]. देहमात्रे च सत्यस्मिन् स्यात्सङ्कोचादिधर्मरिण । यथार्थं सर्वमेव तत्
धर्मादिरूर्ध्वगत्यादि
11911 भावार्थ -- "धर्म से ऊर्ध्वं गति होती है ( उपलक्षरण से अधर्म से अधोगति देती है) आदि कथन शरीरपरिणामरूप संकोच विस्तार आदि धर्मवान श्रात्मा में वास्तविक रीति से घटता है -- [७] .
॥ ८ ॥
विचार्यमेतत् सद्बुद्धया मध्यस्थेनान्तरात्मना । प्रतिपत्तव्यमेवेति न खल्वन्यः सत नय! भावार्थ — उक्त कारणों से मध्यस्थभावयुक्त बुद्धिमान् अंतरात्मा को अपनी सद्बुद्धि से अहिंसा आदि का विचार करके उसको स्वीकार -करना चाहिए-सचमुच सत्पुरुषों के लिये दूसरा कोई मार्ग नहीं है - [ ८ ]
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मांसभक्षणदूषणाष्टकम् [ १७ ]
भक्षणीयं सतां मांसं प्राण्यङ्गत्वेन हेतुना । प्रोदनादिवदित्येवं
कश्चिदाहातितार्किकः
॥ १ ॥