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पीडाकर्तृत्वयोगेन' देहव्यापत्त्यपेक्षया। तथा हन्मीति सङक्लेशाद्धिसैषा सनिबन्धना ॥२॥
भावार्थ-दुःख के कर्तापन के सम्बन्ध से देह के होने वाले नाथ की अपेक्षा से हनन करने वाले में 'मैं हनन करता हूँ' ऐसा मनोमालिन्य दीखता है, अतः हिंसा सकारण है--[२].
हिंस्यकर्मविपाकेऽपि निमित्तत्वनियोगतः । हिंसकस्य भवेदेषा दुष्टा दुष्टानुबन्धतः ॥३॥
भावार्थ--हिंस्य प्राणी के कर्मों के उदय के हिंसा में मुख्य कारण होने पर भी हिंसक उसमें निमित्त रूप होता है, इस हेतु से हिंसक को भी हिंसा दोष लगता है, पर यदि वह दुष्ट-कलुषित चित्त पूर्वक हिंसा करता हो तो उसे दुष्ट या सदोषी कहते हैं --[३].
ततः सदुपदेशादेः क्लिष्टकर्मवियोगतः । शुभभावानुबन्धेन हन्ताऽस्या विरतिर्भवेत् ॥४॥
भावार्थ- उसी रीति से सदुपदेश आदि द्वारा क्लिष्ट कर्मों के क्षय के कारण तथा अध्यवसायादि शुभ भावों द्वारा हिंसा की निवृत्ति होती है-[४]
महिंसषा मता मुख्या स्वर्गमोक्षप्रसाधनी । एतत्संरक्षणार्थ च न्याय्यं सत्यादिपालनम् ॥५॥
भावार्थ-स्वर्ग और मोक्ष की साधनभूत अहिंसा ही मुख्य है, और इसी कारण से अहिंसा व्रत के संरक्षण हेतु सत्य प्रादि व्रतों का पालन करना भी न्यायसम्मत है-[५].