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भावार्थ--उक्त अहिंसादि का प्रभाव होने के कारण न्याय दृष्टि से यम! नियम आदि सारी क्रियाएँ असत्य अर्थात् अभावरूप अथवा अज्ञानयुक्त हैं-[४].
शरीरेणापि सम्बन्धो नात एवास्य सङ्गतः तथा सर्वगतत्त्वाच्च संसारश्चाप्यकल्पितः
भावार्थ--आत्मा को मात्र नित्य मानने से आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध युक्ति-युक्त नहीं बनता और उसके सर्वव्यापक होने से उसका (आत्मा का) वास्तविक भवभ्रमण भी अकल्पित अर्थात अशक्य है--[५].
ततश्चोध्वंगतिधर्मादधोगतिरधर्मतः। ज्ञानान्मोक्षश्च वचनं सर्वमेवौपचारिकम्
भावार्थ--और इस कारण से “धर्म से आत्मा की उनमति, अधर्म से आत्मा की अधोगति और ज्ञान से मुक्ति होती है" ऐसा शास्त्र वचन भी औपचारिक अर्थात् कल्पित हैं--[६].
भोगाधिष्ठानविषयेऽप्यस्मिन् दोषोऽयमेव तु । तद्भदादेव भोगोऽपि निष्क्रियस्य कुतो भवेत्
॥७॥
भावार्थ--भोग के आधारभूत शरीरसंबंधी संसारभ्रमण को स्वीकार करने पर भी यही दोष लगेगा । पुनः भोग के भी क्रिया का एक भेद होने से क्रिया-रहित आत्मा के लिये वह कैसे संभव होगा ?--[७].