Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 54
________________ प्रमाणेन विनिश्चित्य तदुच्यते न वा ननु । मलक्षितात्कथं युक्ता न्यायतोऽस्य विनिश्चितिः ॥६॥ सत्यां चास्यां तदुक्तया किं तद्वद्विषय निश्चतेः । तत एवावनिश्चित्य तस्योक्तिध्यानिध्य मेव हि ॥७॥ भावार्थ--प्रमाणलक्षण प्रमाण द्वारा निर्णय करके कहा जाता है, या बिना ही निर्णय किये ? इसमें पहला विकल्प उचित नहीं है क्योंकि जिसका लक्षण ही तय नहीं हुआ हो ऐसे प्रमाण द्वारा अर्थात् भनिश्चित प्रमाण द्वारा अपने ही लक्षण का निश्चय (अनवस्थादि दोष लगने से) न्याय युक्त नहीं है । और अनिश्चित प्रमाण से लक्षण का निश्चय होने पर भी प्रमाण-लक्षण के कथन से क्या लाभ ? अर्थात् यहां प्रमाण-लक्षण का कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि उस रीति से यानी अनिश्चित प्रमाण से प्रमेय का निश्चय भी नहीं हो सकता है । दूसरी बात यह भी है कि बिना निश्चय किये प्रमाण द्वारा लक्षण का कथन करना भी मात्र बुद्धि की अंधता का ही सूचक है अर्थात् मनुष्य की मूर्खता रूप ही हैं-[६-७] तस्माद्यथोदितं वस्तु विचार्य रागजितः। धर्माथिभिः प्रयत्नेन तत इष्टार्थसिद्धितः ॥८॥ भावार्थ-उक्त कारणों से राग-रहित धार्मिक महानुभाग मानवों को वस्तु का यथास्वरूप से प्रयत्नपूर्वक विचार करना चाहिये, क्योंकि इस प्रकार की सत्य एवं तथ्य विचारणा से ही इष्ट अर्थ.की सिद्धि होती है--[]

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