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भानार्थ-कषित धर्मवाद में साधु की विजय हो जाय तो प्रतिवादी द्वारा धर्मस्वीकार (धर्मप्रभावना) मैत्री आदि रूप अनिन्दित फल साधु को संप्राप्त होते हैं और यदि साधु की पराजय हो जाय तो उसके अपने मोह अर्थात् अज्ञान का नाश होता है । यह धर्मवाद जय एवं पराजय दोनों स्थितियों में मात्र लाभदायी एवं वादी तथा प्रतिवादी दोनों का एकान्त हित करने वाला होता है--[७]
देशाद्यपेक्षया चेह विज्ञाय गुरुलाघवम् । तीर्थकृज्ज्ञातमालोच्य वादः कार्यों विपश्चिता ॥८॥
भावार्थ-पंडित पुरुषों को वर्तमान शासनपति भगवान श्री महावीर स्वामी परमात्मा के उदाहरण की विचारणा करके देशकाल, सभा, सभ्य, प्रतिवादी आदि की अपेक्षा से अपने गौरव या लाघव का पूर्ण विचार करके किसी भी प्रकार का वाद करना चाहिये--[-]
धर्मवादाष्टकम्
[१३] विषयो धर्मवादस्य तत्तत्तन्त्रव्यपेक्षया । प्रस्तुतार्थोपयोग्येव धर्मसाधनलक्षणः
॥१॥ भावार्थ-प्रत्येक दर्शन की अपेक्षा से प्रस्तुत अर्थ.अर्थात् मोक्षमार्ग प्राप्ति में जो उपयोगी हो और जो धर्म का साधन रूप हो, ऐसा कोई भी विषय धर्मवाद का विषय हो सकता है--[१]