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परमषियों ने बाद तीन प्रकार के बताये हैं : (१) शुष्कवाद (२) विवाद एवं (३) धर्मवाद--[१]
अत्यन्तमानिना साध क्र रचित्तेन च दृढम्।। धर्मदिष्टेन मूढेन शुष्कवादस्तपस्विनः ॥२॥
भावार्थ-अत्यन्त अभिमानी, अत्यन्त क्रूर चित्त वाले, धर्म-द्वेषी या मूर्ख के साथ साधुपुरुषों का जो वाद होता है, उसे शुष्कवाद कहते हैं--[२].
विजयेऽस्यातिपातादि लाघवं तत्पराजयात् । धर्मस्येति द्विधाऽप्येष तत्त्वतोऽनर्थवर्धनः
॥३॥ भावार्थ--ऊपर कथित अभिमानी आदि के साथ वाद में साधु की विजय हो, तो अभिमान के नशे में चूर अभिमानी का प्रतिपात अर्थात् मृत्यु भी असंभव नहीं है । कदाचित् साधु की पराजय हो जाय तो धर्म को लघुता होती है। अतः तत्त्वतः शुष्कवाद दोनों प्रकारों से अनर्थ का अभिवर्धक है अर्थात् अनर्थ को बढ़ाता है--[३]
लब्धिख्यार्थिना तु स्याह :स्थितेनमहात्मना। छलजातिप्रधानो यः स विवाद इति स्मृतः ॥४॥
भावार्थ--पुनः धन प्रादि इहलौकिक लाभ एवं ख्याति की इच्छा वाले दुःस्थित अर्थात् अस्थिर और अनुदार (संकुचित) चित्तवाले के साथ छल और जाति की प्रधानता वाला जो वाद होता है उसे विवाद कहते हैं-[४]