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दृष्टा चेदर्थ संसिद्धी कायपीडा ह्यदुःखदा । रत्नादिवणिगादीनां तद्वदत्रापि भाव्यताम् 11911 भावार्थ -- संसार में रत्न, मरिण, मोती आदि के व्यापारियों को विभिन्न देशों समुद्रों तथा खानों पर रत्न, मरिण या मोती की प्राप्ति या खरीद के लिए जाना पड़ता है । इस प्रवास में खानपान घूमनेफिरने और अलग २ जलवायु आदि के कारण कायपीडाका री कष्ट होते हैं । पर रत्न, मरिण एवं मोतियों के व्यापारियों की इष्टसिद्धि (लाभ) आदि होने के कारण उक्त प्रवृत्ति में होने वाली कायपीडा को व्यापारी दुःख रूप नहीं मानता। इसी प्रकार मोक्षमार्ग की साधना में कर्म - निर्जरा के हेतु रूप होने वाली तपरूप कायपीडा को भी मोक्ष साधक कायपीडा नहीं मानता । इसके विपरीत वह तपश्चर्या को देहममत्व त्याग का प्रबल साधन मानता है । देहममत्व संसार - साधक एवं मोक्षबाधक है -- [७]
विशिष्टज्ञानसंवेगशमसारमतस्तपः ।
क्षायोपशमिकं ज्ञेयमव्याबाधसुखात्मकम्
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भावार्थ- पुन: तप विशिष्ट ज्ञान, विशिष्ट संवेग, तथा विशिष्ट प्रश्न सारपूर्ण है, इस कारण से तप चारित्र मोहनीय कर्म के उत्पन्न होने वाला तथा अव्याबाध सुखरूप है -- [ 5 ]
क्षयोपशम से
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वादाष्टकम्
[१२] शुष्कवादो विवादश्च धर्मवादस्तथाऽपरः । इत्येष त्रिविधो वादः कीर्तितः परमर्षिभिः
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