Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 47
________________ . भावार्थ-तपश्चर्या के बारे में संसार में अनेक विचारधाराएं हैं, अनेक शंकाएँ भी हैं, उन शंकाओं को ग्रन्थकार स्वयं बताते हैं। इस अष्टक में प्रथम ४ श्लोक शंका के हैं और उसके बाद के ४ श्लोकों में शंका का समाधान है । कई लोगों की मान्यता है कि बल के दुःख की भांति तप भी कर्मोदय रूप (कर्मफल रूप) होने के कारण दुःखात्मक है, इसलिए तप को मोक्ष का साधन रूप कहना युक्तिसंगत नहीं है-[१] सर्व एव च दुःख्येवं तपस्वी सम्प्रसज्यते । विशिष्टस्तद्विशेषेण सुधनेन धनी यथा ॥२॥ भावार्थ -पुनः सब प्राणी दुःखी हैं और तप भी जैसा कि ऊपर के श्लोक में बताया है , दुःखात्मक हैं, इस कारण से जिस प्रकार विपुल धन मनुष्य धनवान कहलाता है उसी प्रकार से विशेष दुःख होने के कारण मनुष्य विशिष्ट तपस्वी कहलायेगा-[२] महातपस्विनश्चैवं त्वन्नीत्या नारकादयः । शमसौख्यप्रधानत्वाद्योगिनस्त्वतपस्विनः ॥३॥ भावार्थ --इससे उपर्युक्त नीति (न्याय अथवा मान्यता) के अनुसार नारक जीव आदि महातपस्वी कहलायेंगे, और योगीजन अतपस्वी कहलायेंगे क्योंकि वे समता रूप विशिष्ट सुखवाले अर्थात् अदु:खी युक्त्यागमबहिर्भूतमतस्त्याज्यमिदं बुधैः । प्रशस्तध्यानजननात् प्राय आत्मापकारकम् ॥४॥

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